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पाँचवाँ परिच्छेद

"कुछ नहीं । मेरी धारणा थी कि मेरी स्नेहमयो जननी इस संसार में नहीं है। यदि होती, तो क्या अपने पेट की बेटी को एक बार भी याद न करती ? मेरी माँ तो हो ही नहीं सकती। पर अब यह मेरी धारणा निर्मल हो गई । जैसा कि तुम कहती हो, मेरे पिता के तो मरने-जीने का कुछ भी ठिकाना नहीं है, और मेरी माँ, मेरे ही सामने बैठी हुई है । वह सुहागिन, सुखी और एक प्रसिद्ध धनी की स्त्री है।"

सरला का मुॅंह तमतमा आया । आज से प्रथम किसी ने उसे ऐसी उत्तेजित न देखा था । उसका दम घुटने लगा । इतना कहकर वह उठ खड़ी हुई।

रमणी बहुत ही अन्यमनस्का हो रही थी । तिस पर भी उसने सरला का हाथ पकड़कर कहा-"सरला! बैठ जाओ । अपनी माता का अपमान मत करो । अपने कर्मों पर मुझे स्वयं अनुताप है । फिर मैं चाहे जैसी हूँ, पर तुम मेरी ही वस्तु हो । तुमने बड़ा कष्ट पाया है । अब मैं तुम्हें अपने घर ले चलूँगी । वहाँ चलकर सुख से रहना ।"

सरला ने नीचे सिर झुकाकर कहा-"तुम्हें अनुताप है, यह तो बड़ी खुशी की बात है ; पर तुम्हारा मुझ पर स्वत्व कैसे है ? तुमसे भी अधिक इस झोपड़ी का, इन पशु-पक्षियों का, इन खेतों का और उस युवा का मुझ पर स्वत्व है।" सामने ही सत्य बैठा था, और अपना काम कर रहा