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पाँचवाँ परिच्छेद

दिया था। यह बात है तो अनोखी, पर इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए । बात यों थी कि ब्याह के लालच का गुरुत्व वास्तव में उसे ज्ञात ही न था । अस्तु । सत्य के प्रसन्न करने को वह जितने उपाय करती, वे सब निष्फल होते । सत्य भी बहुत कुछ प्रसन्न रहना चाहता, पर संसार में केवल चाहने से ही किसी को सब कुछ थोड़े ही मिल जाता है-भाग्य चाहिए, बल चाहिए, योग्यता चाहिए और त्याग चाहिए । सत्य अवसर पाते ही एकांत में उसी झरने के किनारे, उसी शिला पर बैठा सरला की चिंतना किया करता था।

सर्दी के दिन थे, दोपहर ढल चुका था। सरला खड़ी- खड़ी नाँद में कपड़े खंगार रही थी, और सत्य सामने के छप्पर में गायों के लिये चरी काट रहा था । इतने में एक घोड़ा-गाड़ी द्वार पर आकर खड़ी हो गई । सरला ने यों ही भीगे हाथ जाकर देखा कि एक महिला गाड़ी से उतर रही है । उसका मुख भारी और रुआबदार था । शरीर जड़ाऊ आभूषणों से सज रहा था। उसके बढ़िया वस्त्र और सामग्री देखने से वह कोई बड़े घर की स्त्री मालूम होतो थी। अवस्था इसकी कोई ४० वर्ष की होगी । सरला ने आदर-पूर्वक उसका स्वागत करना चाहा, पर उस रमणी की ज्यों ही सरला पर दृष्टि पड़ी, त्यों ही दौड़कर उसने उसे गोद में उठा लिया। सरला से न बचाव करते बना और न