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चौथा परिच्छेद

तब मैं तुम्हारे साथ अपनी तुलना कर रहा था। मेरे हृदय की तुम प्रशंसा कर रही हो, पर तुम उसे जानती ही नहीं ; वह तो अत्यंत क्षुद्र है, जो गुरु है, जो शिक्षक है, जो महान् है,उसे वह केवल विनोद की सामग्री समझता है। देवी! जिसको तटस्थ होकर पूजा करनी चाहिए, उसे वह सेवा में लेना चाहता है। दयामयी ! इसकी शांति का तुम उपाय नहीं कर सकती क्या ? यह व्याकुलता, यह अतृप्ति असह्य तो है, पर एक अनिर्वचनीय सुख इसमें मिलता है। इस सबका अर्थ क्या है ?"

सरला ने अत्यंत स्नेह से युवक का हाथ पकड़कर कहा-"शांत होओ सत्य ! शांत होओ। मैं तुम्हारा मतलब समझ गई हूँ ! पर इतनी आत्मप्रतारणा की जरूरत ही क्या है? देखो, मनुष्य वासनाओं का दास है। उसमें फॅंसना कुछ अप्राकृतिक नहीं। उस पर विजय पाना वीरता है । आओ, हम सब उस पर विजय पाने की प्रतिज्ञा करें।"

"पर सरला!क्या प्रतिज्ञा-मात्र से ही विजय मिल जायगी"

"नहीं,उसके लिये हमें अध्यवसाय,परिश्रम और आत्मत्याग का निरंतर अभ्यास करना होगा।"

"अच्छा, मैं वही करूँगा, पर यह वासना-चाह ना बनीक्यों है ?"

सरला ने सत्य के मुख पर दृष्टि गड़ाकर कहा-"चाहना बुरी नहीं है सत्य ! जिनका हृदय सुंदर होता है, वे ही चाहना करते हैं।"