सच जानो,आज ही श्रद्धा उठ जाय !"इतना कहकर सरला सत्य का मुॅंह निहारने लगी।
सत्यव्रत का मन न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा था। कॉलेज की भारी-भारी पोथियों में जो कुछ न मिला था, वह उसे झरने की बूंदों पर लिखा दिखाई देने लगा। वह आज सरला से व्याह का प्रस्ताव करने की-उसे हृदय से लगाने की लालसा से यहाँ आया था, पर उसके जी में ऐसा होने लगा कि इस देवी के चरणों में अपने हृदय के सारे पुष्प बिखेर देना चाहिए । सरला सचमुच उससे बहुत ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित है। सत्य के मन में ऐसा बोध होने लगा कि सरला से ब्याह का प्रस्ताव करना उसका अपमान करना है । सयस्तब्ध, नीरव बैठा रहा।
सरला ने कहा- क्यों सत्य ! चुप क्यों हो ? क्या तुम्हें मेरे वचन पर प्रतीति नहीं होती?"
सत्य ने तुरंत ही हड़बड़ाकर कहा-'नहीं-नहीं, सरला,कभी नहीं।"
सरला बोली- "तो तुम चुप क्यों हो ? क्या तुम्हें भी मेरे भाँति आत्मग्लानि हुई है ? बोलो ! मैं जानती हूँ, तुम उच्च हृदय के अधिष्ठाता हो"
सत्य ने कहा-“सचमुच आत्मग्लानि तो हुई है, पर तुम्हारी तरह विशाल भावों से नहीं । सरला,तुम्हारी-मेरी क्या तुलना ? जब तुम झरने के साथ अपनी तुलना कर रही थीं,