लिये ललचा जाती है । ऐसा ही लालच तुम्हें उत्पन्न हुआ है।"
इतना कहकर सरला इस भाव से सत्य का मुंह देखने लगी कि उसे मेरी बात ठीक जॅंची भी या नहीं । सत्य ने कहा-"इस निर्जीव और मूक सौंदर्य में तुम क्यों ऐसी महत्ता स्थापन करती हो, इसे मैं नहीं समझ सका।"
सरला ने तुरंत उत्तर दिया-"तुमने समझने की चेष्ठा नहीं की, नहीं तो यह कोई गूढ़ बात नहीं है देखो, वह जो गाँव में बालाजी का मंदिर है, उसकी पूजा सब लोग कितने काल से करते हैं । कितने लोग नित्य सिर झुकाते, कितने हाथ जोड़कर स्तुति करते,कितने मानता मानते और कामना करते हैं कामना पूरी नहीं होती, तो भी उन पर अश्रद्धा नहीं होती। लोग यह खयाल भी नहीं करते कि यह पत्थर की प्रतिमा है । प्रत्युत यही समझते हैं कि देवता की प्रसन्नता हम पर नहीं हुई । इस भावना का कारण क्या है ? पिता, माता,स्वामी की सेवा करने पर यदि फल-प्राप्ति नहीं होती, तो लोग उधर से उदासीन हो जाते हैं, कितने ही बिगड़ बैठते हैं। उन्हें सच्चे हितैषी जान-समझकर भी लोग वैसा स्थिर भाव नहीं रखते, जैसा कि पत्थर की प्रतिमा में । इसका कारण यही है कि वहाँ अत्यंत निरपेक्षता है। नितांत निस्पृह भाव है। हद्द दर्जे की स्थिरता, निश्चलता है। आज यदि बालाजी की प्रतिमूर्ति किसी का मानापमान स्वीकार करने लगे,तो