तीसरा परिच्छेद २७ उसने देखा कि बालिका सरला जिस प्रेम में मग्न है, वहाँ कोई हताश नहीं हुआ। पर इसे यह सब ज्ञान कहाँ से हाथ लगा ? मेरे खेत के पत्तों पर यह लिखा होता, तो मैं क्यों ऐसा दुःख पाता ? बढ़ा बोला-"भगवती ! कुछ समझ में नहीं पाता, तू कहाँ है ? पर ऐसा विस्तार तेरे हृदय ने कहाँ से पाया है ? मेरे झोपड़े में तो इस को कोई सामग्री प्रस्तुत न थो।" सरला ने कहा-"पिता ! उस महापुरुष के विचारों ने, जो वहाँ पुस्तकों में लिखे रखे हैं, मेरी आँखें खोल दी हैं। मेरे जो में आता है कि स्वप्न में मैं एक बार उन्हें देख पाऊँ ! नित्य यही भावना करके सोती हूँ, परंतु वे नहीं देख पड़ते । पर दिखाई अवश्य देंगे। जब उनके योग्य मेरा तन, मन, आत्मा हो जायंगे, तभी दिखाई देंगे । अभी तो बाबा! मैं पशु-पक्षियों से भी मधुर, सरस और सुंदर नहीं हूँ ! न मुझमें वैसा ज्ञान है। तुमने देखा ही होगा कि जब प्रभात होता है, आकाश में ऊषा का उदय होता है, खेतों के पौधे मोतियों से सजकर खड़े हो जाते हैं, तब कितने पक्षी तरह-तरह के राग गाने लगते हैं। तब मैं अज्ञानी की तरह चुर- चाप उन्हें देखती रह जाती हूँ । उस सौंदर्य को मेरा हृदय कुछ भी नहीं समझता । संध्या को जब बादल लाल-लाल हो जाते हैं, तालाब के जल में पक्षी शोर कर उठते हैं, खोखलों में बैठे हुए पक्षी-शिशुओं को, जो गर्दन निकाल-निकालकर अपने- अपने माता-पितानों को देख रहे थे, उनके माता-पिता PRAT: TOILE
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