२६ हृदय की परख और गाय-भैंसें तुम्हारे लिये बहुत हैं । फिर सत्य के पिता की भी कुछ भूमि-संपत्ति है । ईश्वर तुम्हारा मंगल करेंगे।" सरला पपीना-पसीना हो गई । पर यह पसीना लाज से नहीं था। लज्जा का कोई चिह्न उसके मुख पर न था । बूढ़े ने सरला के मन का भाव जानने को सरला के मुख की ओर देखा । उसके नेत्रों में एक ऐसी ज्योति झलक रही थी, जैसे आत्म- चिंतन में मग्न हुए तपस्वियों को घाँखों में झलकती है। बूढ़े को अपनी ओर निहारते देखकर सरला ने कहा-"देखो बाबा ! क्या जड़, क्या चैतन्य, सब का उद्गम एक ही है । एक से ही सबका विकास है, और अंत में वहीं सबका सम्मि- लन होता है। मनुष्य स्वभाव से ही सम्मिलन की ओर खिंचता है, पर रास्ता भूले हुए मृग की तरह वह ऐसे सम्मिलन ग्थापित कर लेता है, जो उसके उच्च और सच्चे सम्मिलन के बाधक होते हैं । अंत में वह उद्देश्य-भ्रष्ट होकर पछताता और दुखी होता है । पर जो स्थिर दृष्टि से उसी में व्रती होता है, उसे सम्मिलन-सुख मिलता है । वही धन्य है, जिसने अपने सम्मिलन के गुण को मार्ग में ही नहीं बेच दिया है। मुझे भी, बाबा ! वही सुख प्राप्त करने की लालसा है । उस महा. भूति में ही सब कुछ है । मैं वा जाऊँगा, जहाँ सब कुछ है, याचना करने से जहाँ सब कोई सब कुछ पाते है।" बूढ़े लोकनाथ ने बड़ी शांति से सरला के इस प्रौढ़ भाषण को सुना । वह स्वयं एक हताश प्रेम का स्वाद चख चुका था। . -
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