पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/२७

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तीसरा परिच्छेद मत मत दे । मैं तो कभी का मर गया होता, जो मेरी सरला न होती।" बात पूरी भी न हुई थी, उसका गला भर आया, आवाज भर्रा गई, और उसकी मैनी आँखों से आंसू निकल- निकलकर सूखे फोके गालों पर बिखर गए | सरला से यह न देखा गया । उसने देखा-उससे बड़ा अपराध हुआ है । अब वैसी बात कहने से क्या लाभ है । उसका भी हृदय उमड़ आया। उसने कहा-'नहीं पाबा, चाहे किसी ने मुझे जन्म दिया हो; पर सच्चे बाप तो मेरे तुम्ही हो, तुम्हारे ही दुलार से मैं इतनी बड़ी हुई हूँ। मैं तो तुम्हारी हो ! बेटी हूँ।" लोकनाथ ने काँरते हुए धीमे स्वर से कहा-"पर मैं तो बेटी जा रहा हूँ । वहाँ से तुम्हें देखने को लौटना न बनेगा।" आगे उससे कुछ भी न कहा गया। बूढ़ा रोने लगा। सरला भी रो रही थी। कुछ कहना चाहा था, पर होठ- मात्र हिलाकर रह गई, कुछ कहा ही नहीं गया । कुछ देर बाद लोकनाथ ने कहा-"सरता ! मैं तेरा असली बाप भले ही न होऊँ. पर मैंने तुझे बाप को हो तरह रक्खा है। अब भी मेरी यही इच्छा है कि तू सुखो रहे । तू राजा के घर की बेटी झोपड़ी में पली है। तेरी जैसी लड़की झोपड़ी में भी सुखी रह सकती है। सत्य कैसा अच्छा लड़का है। मुझे मालूम है। तुम दोनो में मेल भी अच्छा है। मेरी आंतरिक इच्छा है कि तुम दोनो परस्पर विवाह कर लो। मेरी धरती