पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१६७

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बीसवाँ परिच्छेद सुदर ने विलखकर कहा-"हाय ! यह भूदेव जमींदार का घर है।" भूदेव की आँखों से आँसू टपक रहे थे। उसने कहा- "धीरज धरो, जो होना था हो गया। कुछ दाम दो, मैं इस मकान का भाड़ा चुका आऊँ !" सुदर बाबू ने जेब से मनीवेग निकालकर रोते-रोते भूदेव के चरणों में पटक दिया। उस समय उनकी हिचकी बँध रही थी। सामने ही एक परचून की दूकान थी। भूदेव ने उसे जाकर किराया चुका दिया, और वे दोनो पैर बढ़ाए चल दिए। भूदेव काँप रहे थे। रास्ते में बातचीत होती गई । गरम-गरम आँसू भूदेव के नेत्रों से वह रहे थे। रात बहुत हो गई थी। शारदा घबराई हुई बरांडे में खड़ी राह देख रही थी। उसने दूर से देखा, भाई आ रहे हैं, और उनके साथ ही कोई भिखारी आ रहा है। यह कोई नई बात नहीं थी । क्योंकि प्रायः नित्य ही किसी-न-किसी कँगले को सुदर बाबू भोजन के लिये साथ ले आते थे। उसने देखते ही कहा-"भाई ! तुम आ गए ? मैं तो परेशान थी। दोनो आदमी तुम्हें हूँढ़ने गए हैं। इतनी देर कहाँ लगाई ?" सुंदरलाल ने उद्वेगपूर्ण स्वर से कहा-"बहन ! नीचे उता आओ। हमारे मनोरथ सफल हो गए। आशा पूर्ण हो गई। भूदेव आए है।"