१६४ हृदय की परख "चलो, अब ज्यादा दुखी मत करो। भगवान् ने हमारी यात्रा सफल कर दी। अपनी सती साध्वी स्त्री पर अत्याचार करते तुम्हारा कलेजा नहीं काँपा-तुम्हें उस पर दया नहीं आई ?" भूदेव की आँखों में पानी भर आया। उसने रुंधे हुए कंठ से कहा-"शारदा कसी है ?" "जैसे तुमने रख छोड़ो है।" अँधेरा हो चला था। दोनो चल दिए। चलते-चलते सुंदर वावू बोले- "कहाँ चल रहे हो ? तुम्हें अभी मेरे साथ चलना होगा।" भूदेव ने रोते-रोते कहा-"भाई ! कष्ट से कलेजा पक गया है । जब अंत-समय तुम मिल गए हो, तो अब तुम्हें छोड़कर नहीं मरूँगा। चलो, मैं अपनी स्त्री के चरणों में अपने पापों का प्रायश्चित्त करूंगा। पर तुम्हारे इच्छानुसार, चलो, मैं अपने घर में आग लगा आऊँ ! मुझे वहाँ से एक वस्तु लानी है ।" यह कहकर भूदेव एक महा मैले मुहल्ले में एक मैलो कोठरी में पहुँचे । घर में मूर्तिमान् दरिद्रता विराज रही थी। एक कोने में एक फटे चिथड़ों का बिछौना बिछा था। एक और कोने में मिट्टी का पुराना घड़ा लुढ़क रहा था। घर में कुछ नहीं था। उसने काग़ज़ों का एक बंडल उठा. कर ले लिया। फिर कुछ संकुचित होकर कहा- "सुदर भाई ! तुम्हारे पास कुछ पैसे हों, तो दे दो।"
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