१५८ हृदय को परख है। शरीर जकड़ गया है। सत्य की आँखों से पानी टपक पड़ा। हाय ! इतने दिन पीछे सरला आई, तो इस सूरत में ! सत्य ने उसी क्षण हाथ जोड़कर और आँखें बद करके संसार के स्वामी से सरला के मंगल की कामना की। पर क्या जाने वह वहाँ तक पहुँची भी, या वायु और बौछार की झरेटों से बीच में ही नष्ट हो गई । इतने में आग आई । कमरा गरम हुआ । सग्ला ने आँखे खोल दीं। सत्य ने थोड़ा-सा दूध लाकर उसके मुंह में धीरे- धीरे डालना शुरू किया। कुछ देर में सरला को होश आ गया। उसने चारो तरफ देखकर सत्य का हाथ पकड़कर कहा-"कौन ? सत्य ? मैं तुम्हारे घर आ गई ? अच्छा हुा । देखो, मैं बहुत थक गई हूँ। प्रयाग से पैदल आ रही हूँ । न जाने कब से कुछ नहीं खाया। आँधी-मेह मे कहीं एक क्षण को भी नहीं रुको हूँ। तुम्हारे लिये चली आ रही हूँ।" सत्य ने आँखें डबडबाकर रुंधे कंठ से कॉपते-काँपते कहा- "सरला, मेरे लिये इतना कष्ट क्यों ? मुझे बुला लेतीं, मैं ही आ जाता।" यह कह सत्य ने सरला के माथे पर के बालों को पीछे हटाकर ओढ़ना ठीक कर दिया। सरला ने अत्यंत मधुरता से कहा-- "सत्य, तुम्हें लूटकर मैं ही चली गई थी, और अब तुम्हारी सेवा करने में ही आ गई हूँ !" सत्य ने सरला के माथे पर हाथ फेरकर कहा-"मुझे तो ,
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