उन्नीसवाँ परिच्छेद १५५ गाँव के सब लोग सत्यत्रत का बड़ा आदर करते हैं। सत्य न सेवा-व्रत धारण कर रखा है। कोली, चमार, भंगी- गाँव में किसी के भी गेग की खबर सुनते ही सत्य दौड़- कर वहाँ जा पहुँनता है। गाँव-भर के स्त्री-बच्चे उसे अपना पिता समझते हैं। एक बात और है। चाहे उससे कोई कैसा ही व्यवहार करे, सत्य कपी नाराज नहीं होता। जब वह गली में निकलता है, तो झुड-के-झुड वालक उससे लिपटकर तरह-तरह की बातें करने लगते हैं। सत्य चाहे किसी काम से निकला हो; वह सब कुछ भूलकर उनके साथ खेल में लग जाता है। सत्य के द्वार पर किसी को रोक नहीं। जिसके घर नहीं, वह वहाँ आकर सो जाय । जिसे खाना न मिले, वह सत्य के घर जाकर खा ले । सत्य को सरलता, स्वच्छता, सेवा और प्रेम देखकर मन मुग्ध हो जाता है। प्रायः ऐसा देखने में आता है कि जो पुरुष जनता में कुछ जगह कर लेता है, उससे कुछ लोग जलने लगते हैं। पर सत्य का एक भी शत्र नहीं है। उसे न कुछ आशा है, न आकांक्षा। वह मशीन की तरह अपने आवश्यक कार्य यथासमय करता है। उसके लिये हानि-लाभ सब बराबर है। वह न कभी प्रसन्न होता है, न उदास । सहा एकरस । गंभीरता, दृढ़ता और विश्वास की उज्ज्वल श्री उसके मुख पर विराजमान रहती है। एक उसमें विचित्र गुण था ।
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