उन्नीसवाँ परिच्छेद पूस का महीना है। कड़ाके की सर्दी पड़ रही है। ठंडी हवा तीर की तरह लग रही है। इस समय वसंतपुर में चलकर देखिए, कितने ही गरीबों के घरों के छप्पर उड़ गए हैं, कितनों के मकान गिर गए हैं, और सर्दी में ठिठुर- कर सैकड़ों पशु मर गए हैं। कुछ सर्दी-सी-सर्दी है। शीत तो है ही, और उस पर यह घटाटोप और चौबीसो घंटे की टप-टप । हवा सन्नाटा भरकर रह-रहकर प्रचंड होती है। ऐसे समय में हम लोकनाथ के पुराने घर में चलते हैं। अब से तीन वर्ष प्रथम हम सरला के साथ ही वहाँ से बिदा हुए थे। अब उस स्वर्गीय मूर्ति की ऐसी शोचनीय दशा देखकर मनुष्य के ज्ञान और विवेक से घृणा हो गई है। अब हमें वहाँ रहरने का साहस नहीं होता । घर की दशा प्रायः वैसी ही है। अंतर इतना ही है कि सामान कुछ कम है, साधुओं का-सा आश्रम मालूम होता है। चारो ओर के द्वार बंद करके सत्य गाँव के दो-चार किसानों के साथ बैठा हुआ आग ताप रहा है । उसकी अब वह सूरत नहीं है, जो पहले देखी थी। सिर के बाल बढ़कर परस्पर उलझ गए हैं। नेत्रों में शांति और दया का विस्तार है। न उनमें चंचलता है, न तृष्णा ।
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