पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१५२

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हृदय की परख चाहती हो ?" अब की बार सरला ने भौंहें मरोड़कर कहा- "तुमसे मैं कुछ नहीं चाहती। पुरुषों से किसी ने कुछ चाहकर कुछ पाया होगा ?" यह कहकर सरला एक सूखी अपमान की हँसी हँस उठी। कुछ ठहरकर उसने कहा-"तुम लाख भुलावे दो, मैं साफ ही कहती हूँ। मैं यहाँ से न जाऊँगी। क्या यह मेरा घर नहीं है ? मेरे बाप के घर से निकालने- वाले तुम कौन ?" यह कह सरला ने फिर विकट दृष्टि से आँखें तरेरकर वैद्य की ओर देखा । उसका यह भाव देखकर शारदा रो उठी-"हाय, मेरी सरला भी गई !" वैद्यजी उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा-"रोग वृद्धि पर है । कुछ नींद आनी चाहिए। दवा भेजता हूँ । नियम-पूर्वक देना । फिर यथाशक्य शोक उभारना चाहिए । इस उम्र में यह रोग बहुत ही भयंकर हो जाता है।" वद्य के साथ दवा लेने स्वयं सुदरलाल ही गए । शारदा रोकर सरला के ऊपर गिर पड़ी। सरला ने मधुरता से कहा-“मा, तुम रोती क्यों हो?" सरला की वाणी सौम्य देखकर शारदा बोली-"मेरे छौना ! मेरे भाग्य में रोना ही है। तुम्हारे देवता पिता ने ब्याह की ही रात को मुझे त्याग दिया । अपने जीवन का एक-एक दिन मैंने अपना हृदय जला-जलाकर बिताया है। मैं भगवान् से नित्य प्रार्थना करती थी । हे ईश्वर ! सबके मालिक ! सब दुःख सबको देना, पर किसी के हृदय में आग न लगाना । इससे तो मृत्यु ही अच्छी है । लाख दर्जे अच्छी है।" यह