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हृदय की परख

सरला उठ खड़ी हुई। प्रथम तो उसने सीधे विद्याधर के पास जाने का विचार किया, पर फिर अपने कमरे में जाकर वह पत्र पढ़ने लगी। पत्र सत्य का था, उसमें लिखा था―

"देवी! तुम्हारी चिट्ठी? मुझे तुमने चिट्ठी लिखा? इसको तो आंशा नहीं थी। दो वर्ष हुए, तब से तुमने मुझे एक बार भी याद नहीं किया, पर इसमें मुझे आश्चर्य कुछ भी नहीं है। जो इस प्रकार एकाएक बिना कहे चली जा सकती है, वह इतने दिन तक भुल भी सकती है।

"पर मैं तुम्हें कैसे भूल जाता रानी! भूल कर किसे याद करता? हम आस्तिक लोग परमेश्वर को केवन याद ही करते हैं। मिलना तो उसका परोक्ष में होता है। उसे हम नहीं देख सकते, तो क्या हम उसे भूल जायँ?

"तुम्हारा पता तो मुझे पहुत पहले मालूम हो गया था, पर यही सोचकर नहीं आया कि जब तुम आप ही वुलामोगी, तभी मैं आऊँगा। अब तुमने न आने को लिखा है। अच्छा न आऊँगा। सरला,न आऊँगा। जब तुम्हारी ही शिक्षा से मेरे हृदय ने ऐसा बल प्राप्त किया है, तब क्या मैं तुम्हरी ही इस छोटी-सी आज्ञा को न मानूँगा? मैं न आऊँगा, कभी न आऊँगा। तुम जब लिखोगी, तुरंत उत्तर दूँगा।

अनुरक्त―सत्य"

यह छोटी-सी चिट्टी तो समाप्त हो गई, पर इसका पढ़ना न समाप्त हुआ। एक बार, दो बार, तीन बार, बार-बार पढ़ी गई। उसकी आँखों में अँधेरा छा गया। चिट्ठी हाथ से