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सोलहवाँ परिच्छेद

"और तुम्हारी भौजाई?"

अब की बार शारदा फिर बिलख उठी। उसने कहा― "हाय! यह बात मत पूछो मेरी बेटी। रोते-रोते मेरा कलेजा निकल पड़ेगा। मेरी मा रोते-रोते अंधी हो गई, और मैं प्रार्थना करते-करते अधमरी हो गई। पर भाई ने व्याह नहीं किया।"

सरला ने पूछा―"क्यों?"

"क्यों? इस अभागिनी के कारण। मैं यों कष्ट पाऊँ, तो उन्हें विवाह-सुख कैसे रुचता? मेरे भाई धर्म के―दया के―अवतार हैं। वह मा के बहुत ज़िद करने पर कहा करते―'माता, क्यों तंग करती हो? जब अपनी बेटी घर में बैठी है, तब पराई कैसे लाई जाय? अपनी के सारे सुख छीनकर क्या हम सुखी होते अच्छे लगेंगे? मैं अपना जीवन बहन की सेवा में बिताऊँगा।"'

सरला दंग रह गई। ऐसी अनोखी बात! उससे न रहा गया। उसने शारदा से लिपटकर रोते-रोते कहा―"मा, वह देवता है, यह तो जानती थी; पर ऐसे देव-दुर्लभ गुण रखते हैं, यह मैंने स्वप्न में भी न सोचा था।"

सरला कह ही रही थी कि अचानक पीछे से आवाज़ आई―"बेटी सरला, देवतों की क्यों निंदा करती हो? अपनी लक्ष्मी-सी बहन को जान-बूझकर आग में ढकेलनेवाला यदि देवता माना जाय, तो फिर पिशाच कौन होगा?"