न कर सकती। इन बातों से वास्तव में मुझे प्रसन्नता ही होती; पर मैंने यह कभी नहीं सोचा कि इसे क्यों यह बात अच्छी लगती है। हाय! यही मेरे लिये विष-वृक्ष था।
"कलकत्ते की पढ़ाई समाप्त हो गई। वह घर लौट आए। मेरे भाई भी कलकत्ते में पढ़ते थे, अतः वहाँ उनकी परस्पर गाढ़ी मित्रता हो गई थी। दोनो साथ ही रहते थे। कई बार वह हमारे ही घर सो रहते थे। इस बीच में कितने ही बार विवाह की बात उठी, पर वह टालते ही रहे। इसके लिये एक बार उनके पिता से झगड़ा हो गया। मेरे भाई उनसे अत्यंत स्नेह रखते थे। अधिकांश वह अपने पुराने सहपाठी के यहाँ― जो उन दिनों प्रयाग में ही पढ़ते थे―रहते थे। ये तीनो मित्र अभिन्न-हृदय थे। उन दोनो ने जब ब्याह की बहुत ज़िद की, तो इन्होंने साफ कह दिया―'मित्र, यह संबंध मेरे मन का नहीं है। इससे मैं सुखी न होऊँगा, मुझे क्षमा करो।'
"उनकी उदारता, सच्चाई, दृढ़ता सब जानते थे। सुनकर सब दंग रह गए। भाई उस दिन अत्यंत दुखी होकर घर वापस आए। उस दिन से उनका जी ही उनकी ओर से खट्टा हो गया।
"पर बड़े-बूढ़ों की आज्ञा नहीं टलती। मारी विरोध होने पर भी अंत में विवाह हो गया। विवाह हो गया, पर उन्हें उसमें कुछ भी प्रसन्नता न हुई। मुझे याद है, चौंरी में देखने के समय उन्होंने आँखें बंद कर ली थीं।