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सोलहवाँ परिच्छेद

सरला पत्थर की तरह निश्चल बैठी थी। मानो उसमें जान ही नहीं थी। उसने कुछ देर होती देखकर कहा―"फिर?"

शारदा फुटकर रो उठी, पर फिर शांत होकर कहने लगी―"एक दिन―हाय! वह कैसा दिन था―संध्या के समय वह मेरा चित्र बनाने बैठे।" अचानक शारदा चुप हो गई। फिर एक गहरी श्वास लेकर उसने कहा―"व्यर्थ की बातों में क्या है सरला, अंत में मेरे पिता ने उन्हीं से मेरी सगाई कर दी। तब से मेरा मिलना-जुलना बंद हो गया। कुछ तो घर के लोग रोकते और कुछ मैं स्वयं ही लाज से छिपी रहती। पर शशिकला उनसे बराबर मिलती रही। अब खेल तो बंद हो गया था, पर वह उसे पढ़ाने के लिये बराबर आया करते थे। प्रथम तो उन्होंने इच्छा प्रकट की कि मैं भी साथ ही पढ़ा करूँ, पर लाज़ से मैं न गई; और माता ने भी यह बात पसंद न की।

कुछ दिनों बाद विवाह की बात चली। दोनो तरफ़ के पिता तैयार थे; पर उन्होंने टाल-टूल कर दी। मामला किस प्रवाह में बह रहा है, यह किसी को न सूझा था। फिर सुना कि वह उच्च शिक्षा पाने कलकत्ते गए हैं। मुझे किसी बात की चिंता ही क्या थी, मैं शांत भाव से घर रहने लगी। शशि उनका नाम लेकर मुझे चिढ़ाया करती; कभी कुछ करती, कभी कुछ। वह अधिकांश में उन्हीं की बातें करती, और मैं चुप हो रहती―इच्छा रहने पर भी इस विषय में बात