हृदय की परख ज्योत्स्ना-छटा से आलोकित धवल अट्टालिकाएँ मेरे हृदय की ही तरह शांत, गंभीर एवं स्थिर हैं । मानो हमारी बातचीत का उन पर पूर्ण प्रभाव पड़ा है । जो हो, किंतु में स्वयं शांत न रह सका । न मुझे निद्रा पाई । अंततः उठकर मैंने कुछ मैले काग़ज़ों पर-जो उस समय मिल सके-लिखना प्रारंभ किया, और इस प्रकार इस पुस्तक के प्रारंभ के ४ परिच्छेद उसी गंभीर सुनसान अर्द्ध रात्रि में . लिखे गए। पुस्तक का भाव क्या है, इस संबंध में मैं कुछ कहूँ, इसकी अपेक्षा यही उत्तम प्रतीत होता है कि उसे पाठकों की स्वतंत्र अालोचना पर छोड़ दूं । यह बड़ी ही अनुचित बात है कि लेखक विषय-प्रवेश से प्रथम एक सिद्धांत-मात्र स्थिर कर ले, और अपनी कल्पना से ही पाठकों के मस्तिष्क में उन विचारों पर अध विश्वास का बीज ग्रारोपित कर दे, जिन्हें उसने सिद्ध करने की पुस्तक में चेष्टा की है । मैं अपनी गँवारू भाषा में इस ज़बरदस्ती को धाँल' कहता हूँ। तब इतना अवश्य कहना उचित समझता हूँ कि समस्त प्राणियों का कार्यक्रम दो प्रधान शक्तियों द्वारा संचालित होता है, जिनमें एक का अधिष्ठान मस्तिष्क है और दूसरी का हृदय । पहली शक्ति की प्रबलता से मनुष्य को' ज्ञान, वैराग्य, कर्तव्य और निष्ठा का यथावत् उदय होता है; किंतु दूसरी शक्ति केवल ग्रावेश पर आँधी और तूफ़ान की तरह कभी-कभी इतनी प्रबलता से संचरित होती है कि उसमें मनुष्य का ज्ञान, कर्म, निष्ठा और विवेचना सब लोन जैसी हो जाती हैं । उस दशा में मनुष्य का हृदय जितना ही सुदर, स्वच्छ और भावुक होता है, उतना ही वह पतन के मार्ग पर सरलता से मुकता है । ससार अनेक अपराध हृदय सौंदर्य के कारण होते हैं । अनेक पुरुष अपने हृदय की कोमलता को दूषण समझते हैं । यदि किसी तरह वे अपने हृदय को कठोर
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