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हृदय की परख

गया। शारदा फूट पड़ी। उसने हिचकी लेते-लेते कहा― "ईश्वर तुम्हें शांति दे। मैंने क्षमा किया बहन! तुम्हारा अपराध ही क्या है? सब मेरे भाग्य का दोष था।"

गृह-स्वामी ने कहा―"शशि! तुम बच जाओ, तो मैं तुम्हें कलंकिनी जानकर भी हृदय से लगाऊँगा। तुम्हारे बिना तो मैं मर जाऊँगा!"

शशि ने अत्यंत क्षीणता से कहा―"ऐसे देवता स्वामी को छोड़कर मरने को जी नहीं चाहता, पर अब चाहने से क्या।" अब रोगी बिगड़ चला। उसकी आँखें पथरा गई। श्वास अट- कने लगी। शशि ने स्वामी की ओर हाथ जोड़कर कातरता से देखा। गृह-स्वामी अब आपे में नहीं थे। उन्होंने बड़े कष्ट स कहा―"क्षमा किया, और कुछ इच्छा हो सो कहो।"

रोगी के मुख पर प्रसन्नता छा गई, पर वह देर तक न रही। कुछ कहने की चेष्टा की, पर गों-गों के सिवा कोई स्पष्ट शब्द न निकला। दो हिचकियाँ आईं, और मुँह में कुछ भाग भर आए। उसके साथ ही आँखें पलट गईं। अभागिनी शशि सदा को चल बसी! गृह-स्वामी कटे रूख की तरह उसके ऊपर गिर पड़े। घड़ी में उस समय पाँच बजने में कुछ कसर थी।