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चौदहवाँ परिच्छेद

तुम्हारा हृदय ऐसा कलंकित था, इसका तो कभी स्वप्न में भी आभास नहीं मिला। अब भी इस बकवाद पर एकाएक विश्वास नहीं होता।"

शशि ने कहा―"बस-बस, अब कलंकिनी को और अवि- श्वासिनो मत बनाओ। पहले मेरी इच्छा थी कि सब बातें आपसे कहकर उनकी खोज में भाग जाउँ, पर आपका प्रेम क्या ऐसा-वैसा था। मैं उसमें मोह गई―उसी के लालच में फँस गई। पापी हृदय में वैसा बल ही कहाँ से आता? मैंने देखा, ऐसा राज्य छोड़कर उस भटकने में क्या रक्खा है, जिसमें पद-पद पर भय, लज्जा, संकोच और अव- हेलना है।" इतना कहते-कहते शशि फूट-फूटकर रोने लगी।

इस पर स्वामी की दृष्टि और भी कड़ी हो गई। वह बोले―"अभागिनी, तैंने अपने स्वामी को ही धोखा दिया!" अब की बार उसके मुख पर कुछ तेज-सा छा गया। वह बोली―"नहीं, मैं आपके सामने उतनी अपराधिनी नहीं हूँ। अपराध या विश्वासघात, जो कुछ भी कहिए, मैंने भूदेव के ही साथ किया है। आपकी अर्धांगिनी होकर मैं तन- मन से आपकी दासी हो गई थी।"

इस भाषण की तीव्रता गृह-स्वामी से न सही गई, पर वह चुपचाप बैठे रह गए। अब एक शब्द भी उनके मुख से नहीं निकला। रोगी ने पानी माँगा। अब की बार गृह-स्वामी ने उसे सहारा देकर न उठाया। पहले का पिया हुआ जठा