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हृदय की परख

रायजी की कन्या शारदादेवी से―जो सामने खड़ी हैं―ब्याह कर दिया। इसके बाद अगली रात को वह मुझे लेकर भाग गए। तब चार मास का गर्भ था। पीछे यह कन्या हुई, तब कलंक के अनुताप से मैंने उन्हें बहुत खरी-खोटी सुनाईं। उसी दिन रात को क्रोध और दुःख से वह चल दिए। बड़ी आँधी-पानी की रात थी। वह फिर नहीं आए, न ख़बर मिली। मैं घर लौट आई, और फिर मेरा तुम्हारे साथ व्याह हो गया। मैंने हज़ार सिर पटका, पिताजी से सब साफ़-साफ़ कह दिया; पर मेरा व्याह न रुका। व्याह हो गया। फिर मैंने आपके घर न आना चाहा। प्रथम तो उन्होंने बहुत ज़ोर दिया, पर जब देखा कि मैं मरने को तैयार हूँ, तो बीमारी का बहाना करके रख लिया। पर अंत में दो वर्ष बाद मुझे आपके घर आना ही पड़ा। धीरे-धीरे आपके अक- पट प्रेम और आदर ने मुझे वह सब भुलाने को मजबूर कर दिया।"

शारदादेवी खड़ी थीं। उनका मग़ज़ भिन्नाने लगा। वह दोनो हाथों से सिर पकड़कर वहीं बैठ गईं। सुंदरलाल की आँखों में पानी भर आया। गृह-स्वामी की विचित्र दशा थी। उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। कभी मुँह लाल हो जाता, और कभी पीला पड़ जाता। बात सुनकर वह कुछ काल तक अचल बैठे रहे। फिर बोले―"तो तुमने यह बात अपने हृदय में इतने दिन तक कैसे छिपा रक्खी?