वालों से यह बात छिपी नहीं है कि भारतवर्ष को मुसलमानों ने तल्वार के ज़ोर से नहीं, बरन छल, कपट और धूर्तता से ही अपने आधीन किया था।"
तीसरा बोल उठा,-"भाई! तुम सच कहते हो। यदि जयचन्द को दुबुद्धि ने न घेरा होता तो आज दिन यह भारत पराधीनता को बेड़ी से जकड़ा हुआ न दिखलाई देता। अस्तु, जो कुछ हो, पर यह तीर दक्खिन की ओर से आया है, इसलिये हमारा चित्त इस बात के जानने के लिये घबड़ा रहा है कि इस तीर का चलाने-वाला कौन व्यक्ति है!"
चौथे ने कहा,-"अरे भाई! नव्वाबसाहब का हाथी जिसने मारा है, उसका प्रगट न होना ही अच्छा है; क्यों कि यह बात क्या तुम नहीं जानते कि जिसने नव्वाब का हाथी मारा है, प्रगट होने पर वह भी हाथी ही की गति को पावेगा!"
पांचवां,-"तुम ठीक कहते हो, पर जहां तक हम समझते हैं, ऐसे ऐसे वीर दुराचारी सिराजुद्दौला से तो क्या, यमराज से भी नहीं डरते।"
निदान, इसी प्रकार हाथी के चारों ओर घिरी हुई भीड़ में लोग आपस में भांति भांति के तर्क बितर्क कर रहे थे, इतने ही में एक सुन्दर युवापुरुष ने भीड़ को चीर और हाथी के पास पहुंच कर एक व्यक्ति से पूछा, "क्यों महाशय! वह बालिका किधर गई, जो यहां पर खड़ी थी? क्या आप कृपाकर बतलावेंगे?"
उस युवक की ऐसी मीठी बात सुन कर वहां पर खड़े हुए सभी लोग टकटकी बांधकर उसे निहारने और आपस में काना फूंसी करने लगे।
एकने कहा,-"अरे! यह तो साक्षात वीरता के अवतार ही दिखलाई पड़ते हैं। अहा! इतने थोड़ेवयस में ऐसी बीरता कभी नहीं देखी थी। हो न हो, इन्हीं महात्मा ने आज उस अनाथिनी बालिका के प्राण बचाए होंगे।"
युवक के हाथ में एक छोटीसी धनुष और पीठ पर तरकश बंधा हुआ देख दूसरे ने पूछा,-"क्यों, महाशय! आपके हाथ में धनुष देखने से हमको ऐसा जान पड़ता है कि उस खूनी हाथी से इस नगरनिवासियों के विशेष कर उस असहाय बालिका के प्राण