सकें और उनकी किसी आज्ञा या इच्छा की उपेक्षा कदापि न कीजाय - - -" इत्यादि।
पाठक सोच सकते हैं कि नरेन्द्र के इस उदार हृदय के अद्धत परिचय को पाकर कुसुम का हदय आनन्द से कहां तक बिह्वल हुआ होगा! अस्तु- थोड़ी देर तक तो वह चुपचाप आंसू गिराती रही; फिर आंचल से आंखें पोछ, सिर झुकाए हुई बोली,-
"तो उनको इस आज्ञा के अनुसार तो मैं बहुत कुछ अपने जी की हबस निकाल सकती हूँ!"
माधव,-"अवश्य,-आज्ञा कीजिए!"
कुसुम,-"कदाचित इसे आप कभी अस्वीकार न करैंगे कि देवाराधन सभी अवस्था में अच्छा और कल्याणकारी होता है।"
माधव,-"जी हां, वह कभी व्यर्थ नहीं होता और आस्तिक हिन्दुओं के लिये तो इससे बढ़कर चित्त की शान्ति देने वाला दूसरा कोई उपाय हई नहीं।"
कुसुम,-"अच्छा, तो ऐसी अवस्था में मेरी इच्छा है कि राज-बाड़ी के उद्यान में जो भुवनेश्वरीदेवी का मन्दिर है, मैं एक मास तक वहीं रहकर व्रत करूं और 'सहस्रचण्डी' का अनुष्ठान आज ही से आरम्भ किया जाय। एक सहस्र कंगलों को नित्य भोजन कराया जाय और 'एक सौ आठ' कुमारी नित्य जिमाई जायं।"
माधव,-"जो आज्ञा, मैं अभी पुरोहितजी को बुलवाकर इसका प्रबन्ध करता हूं, क्योकि आपने यह बहुत अच्छा बिचारा है, किन्तु एक मास तक आप किस प्रकार का व्रत करेंगी?"
कुसुम,-"दिनभर मैं भगवती की पूजा किया करूंगी और सन्ध्या को केवल थोड़ा सा दूध पीकर एक मास ब्रह्मचर्य से ब्यतीत करूंगी।"
माधव,-"मैं आपकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं कहा चाहता, किन्तु इतना निवेदन करना उचित समझता हूं कि आपका शरीर इतने कठोर व्रत या ब्रह्मचर्य के कष्ट सहने योग्य नहीं है।"
कुसुम,-"यदि आप मुझे अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने सेन रोके तो बड़ी कृपा हो।"
माधव,-"जैसी आज्ञा।"
इतना कहकर वे कुसुम को अभिवादन कर बिदा हुए और