में इसके भाई की जुदाई का ध्यान न आने दूं;'उसने अपने मन के क्षोभ को भीतर ही भीतर दबा रक्खा और हंसी-खुशी अपनी सहेली (ननद-लवंगलता) के साथ वह रात उसने बिता दी।
दूसरे दिन बड़े तड़के उठकर कुसुम ने मंत्री माधवसिंह को बुलाया और उनसे वह इस प्रकार बातें करने लगी।
कुसुम ने कहा,-"मैंने आपको इस समय इसलिये कष्ट दिया है कि क्या आप मेरी थोड़ी सी इच्छा पूरी कर सकेंगे?"
माधव०,-"आप ऐसा क्यों कहती हैं, आज्ञा कीजिए; आज्ञा पाते ही मैं उस काम के करने के लिये वाध्य हूं, जो आप कहें।"
कुसुम,-(सिर झुकाकर) "आप जानते हैं कि वे संग्राम में गए हैं।"
माधव०,-"किन्तु क्या चिन्ता है! वीरों के लिये संग्राम से बढ़कर आनन्द देनेवाला दूसरा कोई खेल हई नहीं!"
कुसुम,-"आपका कहना ठीक है, किन्तु हम-अबलाजनों का जी तो बिधाता ने बहुत ही कोमल उपादानों से बनाया है!"
माधव०,-"किन्तु वीरनारियों की इसीमें शोभा है, कि वे हृष्ट-चित्त से अपने पति को संग्राम में जाने के लिये बिदा करें।"
कुसुम,-"हां, ऐसा ही है; तथापि मैं यह चाहती हूं कि उनके कल्याण के लिये कुछ देवाराधना की जाय।”
माधव०,-" हां! ऐसा अवश्य होना चाहिए, इसलिये आप जो आज्ञा करें, मैं अभी उसका सब प्रबंध करने के लिये तैयार हूं।"
कुसुम,-" आपको मेरे कहने से कितने रुपए खर्च करने का अधिकार प्राप्त है !"
माधवसिंह ने यह सुन, जेब में से एक काग़ज निकाल कर कुसुम के आगे रख दिया और कहा,-" इसे देख लीजिए, इसके अनुसार आप जो आज्ञा देंगी, उसके पालन करने में मुझे कोई बिचार न होगा।"
कुसुम ने वह काग़ज़ उठाकर देखा। वह नरेन्द्र का आज्ञापत्र था; जिसे वे मंत्री के नाम लिख गए थे। उसमें उन्होंने माधवसिंह को यह आज्ञा दी थी कि,-"श्रीमती कुसुमकुमारी देवी मेरी जगह समझी जायं। और उनकी सब आज्ञाएं मेरी आज्ञा समझकर तुरंत पालन की जायं। जो कुछ वह चाहें, ख़जाने से लेकर खचं कर