भला, लाख चतुराई ख़र्च करने पर भी क्या किसी चतुर चित्रकार का मजा हुआ हाथ, उस समय कांप कर बेहाथ न हो जाता, जब कि वह उस आदशेरमणी की अलकावली के दोनों हिस्सों को आगे से अर्धचंद्राकार धुमाकर कानों के ऊपर से बराबर लेजा कर के जूड़े के बांधने का मनसूबा बांधता!!!
भला, यह भी कभी संभव था कि चतुराई का दम भरनेवाला चतुरानन का चेला चितेरा प्रलयपर्यन्त सिर पटकते रहने पर भी कभी अमल मंदाकिनी की पीयूषधारा के उत्पत्तिस्थान से कुछ दूर हटकर भ्र शैवालरेखा के नीचे पलक पीजरे के भीतर मनोल्लास से खेलती हुई मतवाली मीन की जोड़ी का चित्र अंकित कर सकता!!!
और यह भी उससे कब बन सकता कि वह चितेरे का अचार, लड़ती हुई दो मछलियों के नीचे सुआ का चित्र लिखता, जो बिम्बफल के ऊपर बैठा हुआ कबूतर की पीठ पर केलि कर रहा हो, जिसके दोनों ओर दो मतवाली नागिनें मचल-मचल कर बार-बार चन्द्र-बिम्ब से अमृत चूस-चूस, विष का उद्गार उगल-उगल कर देखनेवालों के हिये में डस-डस लेती हों!!!
फिर यह कब होसकता था कि वह खिलाड़ी का दावा करनेवाला निरा अनाड़ी चितेरा, वहीं सुधासरोवर के तीर, सिंहासन पर पधराई हुई दो सालिग्राम की बटिया बना सकता, जिनकी काली प्रभा से लाल डोरे निकल रहे हों और वे किसी महाभावुक कवि-हदय के इस उद्गार के आदर्श हों कि,-
"अमी हलाहल मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत,जेहि चितवत इक बार।
कहने का तात्पर्य यह कि जिसे बिधाता ने आप ही आप रच-पच कर हाथ पैर धो, प्रणायाम करके अलौकिक उपादानों के मेल से अनुपम बनाया हो, कवि बापुरा उसके लिये क्योंकर अलौकिक उपमानों को पैदा कर सकता है!!!
निदान, कुसुमकुमारी, कुसुमकुमारी ही थी, वह वही थी, और यह अपनी उपमा आप ही थी।
लीजिए,पाठक! कविवर कालिदास के “मन्दः कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्"-इस कथनानुसार हमने अपनी हंसी आप