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(दसवां
हृदयहारिणी।


कुलपुरोहित, कोषाध्यक्ष, सेनापति आदि राज्य के प्रधान प्रधान कर्मचारी और माननीय लोग थे।

इतने ही में बीस स्त्रियां कमरे में आकर कुसुम के पीछे खड़ी हो गईं, जिनके हाथों में छत्र,चमर,पंखे और नंगी तलवारें थीं। कुसुम के सिंहासन के बाईं ओर राजनंदिनी लवंगलता, सिंहासन का पाया पकड़े हुई स्वाभाविक लज्जा और संकोच से संकुची हुई खड़ी थी।

उस समय बीरेन्द्र ने, कुसुम के सिंहासन के दाहिनी ओर खड़े हो, उन व्यक्तियों से, जो कुसुम के सिंहासन के आगे कुछ दूर पर खड़े मर्यादा से सिर झुकाए हुए थे, कहा,-

"माननीय महाशयों! कृष्णनगर के स्वर्गीय महाराज धनेश्वरसिंह महोदय की कन्या, जो आप लोगों के मित्र राजा नरेन्द्रसिंह की पटरानी बनाने के लिये यहाँ लाई गई हैं, आप लोगों के सामने सिंहासन पर विराजमान हैं।"

बीरेन्द्र की बात सुनकर पहिले पुरोहितजी ने सिंहासन के पास पहुंच, सोने के नारियल को कुसुम की गोद में देकर आशीर्वाद दिया कि,-"श्रीमती चिरसौभाग्यवती और बीरमाता हों।"

फिर राजमंत्री माधवसिंह, मदनमोहन आदि उपस्थित व्यक्तियों ने कुसुम को भेंट दी और तब सब लोग सिर नवाकर कमरे में से चले गए।

इसके बाद बीरेन्द्र का इशारा पाकर सब स्त्रियां भी कुसुम को भेंट दे-दे-कर कमरे से बाहर होगई और वहाँ पर बीरेन्द्र, कुसुम और लवंगलता के अलावे और कोई न रह गया।

उस समय औसर देखकर लवंगलता ने कहा,-" ऐं! भैया! भाभी तो बड़ी सुन्दर हैं! आप कहांसे ऐसी सुन्दर बहू लाए! इनका पाना तो बड़ी भारी तपस्या का फल कहा जा सकता है!"

बीरेन्द्र ने मुस्कुराकर कहा,-"अरी, जा, पगली! तैने तो सारा भंडा ही फोड़ दिया।"

इतना सुनते ही कुसुम ने, जो अब तक बध्य-पशु की भांति एक प्रकार से सिंहासन-रूपी खंभे में बंधी हुई सी थी और इतना समय जिसने सपने की भांति बड़ी कठिनाई से काटा था, भौहें तानकर बीरेन्द्र की ओर देखा और ताने के तौरपर कहा,-