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(दसवां
हृदयहारिणी।



मोहन घोड़े पर सवार थे।

हाथी बैठाया गया और बीरेन्द्र उसपर से उतरे। फिर उन्होंने रथ पर से कुसुम का हाथ पकड़कर उसे उतारा। उस समय वह चित्त की चंचलता के कारण एक प्रकार बेसुध सी होरही थी। रथ पर से उसके उतरते ही राजमहल से उस पर घनघोर फूलों की वर्षा होने लगी थी और स्त्रियों के मंगलाचार तथा गानेवालियों के मंगलगीतों से उस समय एक विचित्र आनन्द की मूर्ति क्रीड़ा करती हुई दिखलाई पड़ने लगी थी।

दसवां परिच्छेद,
गृहप्रवेश।

"रत्नाकरे युज्यत एव रत्नम्।"

निदान, बीरेन्द्र कुसुम का हाथ पकड़, संगमर्मर की निसीढ़ियों को तय करते हुए जब अंतःपुर की दूसरी ड्योढ़ी पर पहुंचे तो वहां पर सजी हुई तीन सौ स्त्रीसेना ने अपनी अपनी तल्वारें झुकाकर बीरेन्द्र और कुसुम की अभ्यर्थना की और कुसुम की बराबरवाली एक राजनंदिनी ने आगे बढ़कर बीरेन्द्र को यथोचित अभिवादन किया और कुसुम को स्नेह से गले लगा लिया। फिर बीरेन्द्र कुसुम को लिये हुए अन्तःपुर के एक विशाल सीसमहल में पहुंचे, जो बहुत ही सुहावना और बहुमूल्य वस्तओं से भली भांति सजा हुआ था। वह गृह कांच के असवाबों के अलावे सोने चांदी और जड़ाऊ खिलौंनो तथा गुलदस्तों से भली भांति सजा हुआथा और दलदार मखमली गद्दा, जिसमें ज़रदोज़ी का काम किया हुआथा, कमरे में बिछा था। उस कमरे के बीचोबीच एक सोने का जड़ाऊ सिंहासन बिछा हुआ था, जिसपर जर्दोजी काम के गद्दी-तकिए रक्खे हुए थे और जड़ाऊ चौडंडियों में मोतियों की झालरवाला चन्द्रातप लगा हुआ था। बीरेन्द्र ने उसी सिंहासन पर बलपूर्वक