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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी।



आप ही आप उलाहना दे रही थी, तो मैंने तुम्हारी वे सब बातें ध्यान देकर सुनी थीं; इसलिये यदि तुम्हें महाराज नरेन्द्रसिंह की पटरानी बनना स्वीकार नहीं है तो तुम अपने उसी चितचोर का पता मुझे क्यों नहीं बतलातीं कि मैं उसे खोज निकालूं और तुम्हें उसके हवाले कर, सुखी होऊ!"

बीरेन्द्र की बातों से कुसुम ने उन्हें झिड़ककर कहा,-"देखो जी, जो तुम यों मुझे छेड़ा करोगे तो मैं अपना सिर पीट डालूंगी!"

बीरेन्द्र ने कहा,-" अच्छा, यदि कुछ अपराध मुझसे हुआ हो तो, उसे क्षमा करो!"

"तुम यों न मानोगे-" यों कहकर कुसुम ने अपना गूंथा हुआ एक गजरा बीरेन्द्र के गले में डाल, हाथ जोड़कर कहा,-

बीरेन्द्र! तुम देवता हो! मैं बहुत दिनों से यह चाहती थी कि तुम्हारी कुछ पूजा करूं, पर मुझ कंगली के पास धरा क्या है, जिसे तुम्हें भेंट करती! इसलिये प्यारे, बीरेन्द्र! तुमने मुझ अनाथिनी को एक दिन श्रीठाकुरजी की पूजा के लिए, कई बर्ष हुए याद तो है न-पांच मालाओं के पांच रुपये दिए थे और फिर तभी से तुमने मुझ अनाथिनी के नाथ होकर, जैसी चाहिए, मेरी हर-तरह से भलाई की थी। तुम मेरी माला को बड़े चाव से लेते थे इसलिये आज मैंने रच-पच-कर यह माला तुम्हारे ही लिये बनाई और तुम्हारे गले में डालकर अपना जन्म सफल किया। प्यारे, बीरेन्द्र! बस, इस माला का उचित मूल्य तुम मुझे दे दो, जिसे पाकर मैं सदा के लिए यहांसे बिदा होऊं!"

कहते कहते कुसुम की आंखों से मोतियों की सी लड़ी झरने लगी, जिसे बीरेन्द्र ने अपने पटुके के छोर से रोक लिया और हंस कर कहा,-"अरे, कुसुम! यह क्या किया तुमने? यह तो तुमने मुझे 'बरमाल' पहिना दी!!!”

कुसुम ने उस श्लेष का उत्तर उसी प्रकार दिया, कहा,-"हां, बर (अच्छी) माल जानकर ही तुम्हें मैंने भक्तिपूर्वक अर्पण की है! क्या इसका उचित मूल्य देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है!”

इतना कहते कहते उसने तिरछौहें नैनों से बीरेन्द्र की ओर देखा! अब बीरेन्द्र अपने तई न सम्हाल सके और मारे आनन्द के इतने विह्वल हो गए कि उन्होंने झपटकर कसम को अपने