ही नहीं, बरन असम्भव भी है। देखिए, इस समय वह खिलाड़ी प्रेम कुसुम को कैसे कैसे खेल खिला रहा है!!! कभी कुसुम बीरेन्द्र पर भरोसा करके उन्हें अपना सर्वस्व जानकर मारे खुशी के फूली अंगों नहीं समाती है और कभी वह निराशा से बिकल होकर चारों ओर अंधकार ही अन्धकार देखती और आप ही आप अपने मन का खन कर डालती है!
एक दिन ठीक दोपहर के समय कुसुम अकेली बाग में एक लताकुंज के अंदर संगमर्मर की चौकी पर बैठी हुई फलों का गजरा बना रही थी। थोड़ी देर तक तो वह चुपचाप फूल गूंथती रही फिर एकाएक उसने एक ठंडी सांस खैंची और आपही आप यों कहना आरंभ किया,-
“हा, परमेश्वर! इस आशा-निराशा ने तो मेरे कलेजे को बेतरह मथ डाला! कुछ समझ नहीं पड़ता कि अंत में क्या होना है!!! इस अमाने मन को मैं कितना समझाती हूँ, पर यह निगोड़ा इसकदर मचला हुआ है कि मेरी एक नहीं सुनता। भला, कहां मैं और कहां वे! मुझमें और उनमें आकाश पाताल का अंतर है, ऐसी अवस्था में मेरी आशा क्या पागलपन से खाली कही जा सकती है? और फिर मेरे ऐसे पाटी से भाग कहां हैं!!! खैर, न सही, पर यह तो मेरे बस कीही बात है कि,- 'मैं सदा कुमारी रहकर अपने जिंदगी के दिन बिता दूं;' क्योंकि छिन भर के सुख-नहीं नहीं, घोर पाप-के लिये इस शरीरको नरक में डालना, मुझसे कभी न होगा। हाय! कुछ नहीं समझ पड़ता कि उनके मन में क्या है! क्यों कि जैसा वे पहिले मुझपर अपनो प्रेम प्रगट करते थे, मां के मरते ही मानों उनके मन का भाव कुछ बदला हुआ सा मालूम देता है। यद्यपि वे मुझे प्रसन्न रखने के लिये लाख तरह के उपाय करते रहते हैं, पर फिर भी मैं उस पहिले के ऐसे प्रेम की झलक उनमें नही पाती। भगवान जाने, उनके मन में क्या है!!! हाय! कैसी दुराशा है! वामन होकर चांद के पकड़ने के लिये हाथ उठाना, इसीको कहते हैं। सैकड़ों बार मैंने यह चाहा कि उनसे एक दिन साफ़ साफ़ पूछं कि,-' आपके मन में क्या है?' पर जव चार आँखें होती हैं, तो मारे लज्जा के गला रुंध जाता है और कुछ कहते सुनते नहीं बनता। अच्छा, न सही, तो जब कि वे मेरे