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परिच्छेद)
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आदर्शरमणी।



अपनाते हैं या नहीं; 'क्यों कि बीरेन्द इस ढंग की कोई बात अब कुसुम से नहीं करते थे कि जिससे वह यह बात जान सकती कि,- 'हां, ये मुझे अवश्य अपनावेंगे।'

इसका मुख्य कारण यही था कि कुसुम को माता के शोक में डूबी हुई जानकर बीरेन्द्र ने प्रेम के ढंग की बातें करनी उससे छोड़ दी थीं, जैसा कि वह पहिले, करते थे; यही कारण था कि कुसुम ने उनके मन के भेद को न जानकर अपना मन माना अर्थ लगा लिया और मन ही मन वह यों सोचने लगी कि,-'क्या कारण है कि ये जैसी प्रेम की बातें मुझसे पहिले किया करते थे, वैसी अब नहीं करते तो क्या अब ये मुझे अपने चरणों में स्थान न देंगे!!!"

किन्तु, यहां पर कुसुम ने बड़ी भूल की और उसके मन ने उसे भरपूर धोखा दिया; क्योंकि उसके अलावे बीरेन्द्र के लिये सुख की कोई और बस्तु संसार में थी ही नहीं।

अहा! प्रेम! तू धन्य है!!! तुझे यदि संसार, जीवन, हृदय और समाज का सार कहें तो अनुचित न होगा।

महर्षियों ने, जो प्रेम को परम धर्म और परमेश्वर का हृदय कहा है, सो बहुत ही ठीक कहा है। यह ऐसा ही है, इसकी उपमा यही है। जो लोग प्रेम के साथ-शुद्ध अशुद्ध, कृत्रिम, वास्तविक,वैध, अवैध आदि विशेषणों का प्रयोग करते हैं, वे बहुत ही भूलते हैं; क्यों कि प्रेम निर्विशेषण है, वह अपना विशेषण आप ही है। प्रेम, जबकि जगदीश्वर का हदय है तो वह कदापि अशुद्ध, कृत्रिम, अवैध आदि नीच विशेषणों का विशेष्य हो ही नहीं सकता, क्यों कि विशेषणवान् प्रेम, 'प्रेम' कहला ही नहीं सकता। यह प्रेम तो केवल लोकाचार वा पाशवाचारमात्र है; और जो प्रेम है, उससे संसार वा समाज का मंगल छोड़ कर अमंगल कभी नहीं होता, और जिससे अनिष्ट छोड़कर इष्टसिद्धि कभी नहीं होती, वह कदापि प्रेम कहला ही नहीं सकता। अतएव, हे प्रेम! और हे प्रेमदेव!! हम तुम्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं और तुमसे यही भिक्षा मांगते हैं कि तुम हमारे हदय की प्रलय के अन्त में भी त्याग मत करना।

इस प्रेम की लीलाओं का अंत नहीं, वैसे ही इसका आदि और मध्य भी नहीं है। यह कब, कहां, क्या और कैसी कैसी लीलाएं करने लगता है, इसका भेद पाना बिना उसीकी कृपा के कठिन