लौटना पड़ा। जहांतक हम समझते हैं बीरेन्द्र ने भी कुछ सोच समझ कर ही, कुसुम को उसके घर से हटा लिया था।
हाय! मिठाई और पथ्य की सारी सामग्री, जो बीरेन्द्र लाए थे, ज्यों की त्यों ही पड़ी रही और कमलादेवी कूच कर गईं। उनके दुःख में चंपा अपनी मांदगी को भूल गई, या दया करके रोग हो ने उस बिचारी का पिंड छोड़ दिया था।
"रत्नं समागच्छति काञ्चनेन।”
मय सदा बदलता रहता है और उसकी अदला बदली के साथ ही साथ लोगों के दुःख और सुख भी अदल बदल हुआ करते हैं। चाहे काल कहो, या बेला, अथवा समय; किन्तु हैं ये तीनों एक ही। आज कमलादेवी को सतीलोक सिधारे छः महीने के लग भग बीत गए, इतने ही दिनों में बीरेन्द्र के कारण कुसुम का मातृशोक भी बहुत कुछ जाता रहा और बराबर बीरेन्द्र के पास रहने से उसके चित्त ने बहुत कुछ धीरज पाया। यद्यपि अभी तक बीरेन्द्र उसे अपने घर न लेजाकर मुर्शिदाबाद ही में छिपाकर रक्खे हुए थे कि जहांका पता नव्वाब तो क्या, उसकी रूह को भी लगना कठिन था; अर्थात यों कहना चाहिए कि बीरेन्द ने कुसुम को बहुत ही गुप्त रीति से अजीमगंज में लाकर एक बाग के अदर एक बड़े आलीशान मकान में रक्खा था और पहरे चौकी तथा दास दासियों का पूरा पूरा प्रबंध भी कर लिया था; इसलिये कभी कभी बीरेन्द्र कुसुम से दस पांच दिन के लिये अलग होकर अपने घर भी चले जाया करते थे, पर जै दिन कुसुम के साथ वे नहीं रहते, वह बड़ी कठिनाई से उतने दिनों को बिताती थी।
यद्यपि अब कुसुम को किसी बात का कष्ट न था, पर इस चिन्ता ने उसे बहुत ही ब्याकुल कर रक्खा था कि,-'देखें, ये मुझे