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(सातवां
हृदयहारिणी।



औषधि बनाती थी और चम्पा घर के काम धंधे में लगी हुई थी, सो जब बीरेन्द्र का हाल सुनकर कमलादेवी फिर बेहोश होगईं, तब बीरेन्द्र ने घबड़ा कर आवाज़ दी, जिसे सुन चम्पा और कुसुम दौड़ आईं और थोड़ी देर में कमलादेवी की मूर्छा दूर हुई। जब धीरे धीरे वह कुछ स्वस्थ हुईं, तब उन्होंने कुसुम को इशारे से अपने पास बुलाया और उसका हाथ बीरेन्द्र के हाथ में देकर टूटे फूटे शब्दों में कहा,-

"बेटा!-बीरेन्द्र-मैं-आज-कुसुम को-तुम्हारे हवाले-कर-निश्चिन्त-हुई-अब-मैं चली-"

इतना कहते कहते, वह ज़ोर ज़ोर से सांस लेने लगी, जिसे देख बीरेन्द्र बहुत ही घबड़ाए और उन्होंने इस बात का निश्चय कर लिया कि,-' अब जो कुछ होना है, थोड़ी ही देर में, हुआ चाहता है।' उस समय कुसुम, बीरेन्द्र और चम्पा की आँखों से चौधारे आंसू बह रहे थे, पर बीरेन्द्र ने अपने को बहुत जल्द शांत किया और कुछ सोचबिचारकर उन्होंने थोड़ी देर के लिये वहांसे कुसुम और चम्पा को टाल दिया और अपना असली हाल कमलादेवी से, जिसे वह अब तक नहीं जानती थीं, कह सुनाया। बीरेन्द्र का सच्चा परिचय पाकर कमलादेवी बहुत ही प्रसन्न हुईं और उनके मुख पर आनन्दमयी स्वर्गीय ज्योति की छाया क्रीड़ा करने लगी। तब उन्होंने धीरे से बीरेन्द्र को आशीर्वाद दिया और आंखें बंद करके ऊर्ध्वश्वास खींचना प्रारंभ किया। यह देख, बीरेन्द्र उठे और कमलादेवी की देखभाल करने का भार कुसुम और चम्पा को दे, वैद्यराज के बुलाने के लिये चले गए। रात उस समय आधी से ऊपर पहुंच चुकी थी।

आध घंटे के भीतर वैद्यराज को लेकर बीरेन्द्र लौट आए और वैद्य ने भली भांति कमलादेवी को देखा। उस समय मुर्शिदाबाद में चन्दशेखरजी बड़े नामी वैद्यों में गिने जाते थे, सो उन्होंने भली भांति कमलादेवी को देखकर, धीरे से बीरेन्द के कान में कहा,- "महाशय! अब आप क्यों व्यर्थ वैद्यों के फेर में पड़े हुए हैं? अब इनमें रह क्या गया है कि जिसकी चिकित्सा होगी?” यों कह कर चन्दशेखरजी बिना फ़ीस लिए ही चले गए और कमलादेवी ने आंख खोल, खाट से नीचे उतार लेने का इशारा किया, जिसे समझ और