अंग्रेज़जाति महा उद्योगी है और लक्ष्मी या राजलक्ष्मी उद्योगी पुरुष को ही आलिङ्गन करती है। यही कारण है कि आज दिन यह जाति भारत-साम्राज्य का उपभोग करती है।
बिधिविडंबना।
"विधिर्हि बलिनां बली।"
जिस समय का हाल हम इस उपन्यास में लिख रहे हैं; उस समय रंगपुर के महाराज भी बंगदेश के प्रसिद्ध राजाओं में गिने जाते थे। कहते हैं कि एक बार दिल्ली के बादशाह अकबर ने रंगपुर के महाराज को हाथी घोड़े आदि बहुमूल्य पदार्थ तोहफे के तौर पर भेजे थे, इसलिये रंगपुर के राजा लोग बराबर दिल्ली के बादशाह के पक्षपाती रहे और बंगाले के सूबेदार से कभी न दबे; किन्तु यह बात हम कह आए हैं और फिर भी कहते हैं कि समय जो चाहे सो करे। यद्यपि रंगपुर न बंगाले के कतिपय अत्याचारी सूबेदारों के बड़े बड़े हमले झेले, पर अन्त में उसका भी बल क्षीण हो गया और उसे भी समय के फेर में पड़ कर बर्बाद होना पड़ा। यद्यपि कई अत्याचारियों की शनैश्चर की सी दृष्टि उस पर लगातार पड़ती आती थी, पर अन्त में बंगाले के रावण सिराजुद्दौला ने उसे भरपूर तहस नहस कर डाला। उस समय के बंगालियों के रोदन की प्रतिध्वनि अब तक इतिहासों में गूंज रही है।
जिस समय का हाल हम लिख रहे हैं, उस समय रंगपुर के बूढ़े राजा का नाम महाराजा महेन्द्रसिंह था। ये बड़े तेजस्वी, प्रतापी, प्रजावत्सल, नीतिनिपुण और संस्कृत के पूरे पण्डित थे। इनकी गुणग्राहकता और वदान्यता से उस समय बंगदेश में संस्कृत की बड़ी उन्नति हुई थी और संस्कृत के बड़े बड़े विद्वानों ने अच्छे अच्छे ग्रन्थ लिखे थे। महाराज बड़े धर्मिष्ट थे, प्रतिदिन तीन पहर से अधिक समय उनका पूजा पाठ में व्यतीत होता था। उनकी