को उन्नति की ऊंची चोटी से एक दम रसातल के अंधेरे गढ़े में लेजा कर पटक दिया है!!!
जिस काल ने भारत की स्वाधीनता को मिट्टी में मिलाया, उसीकी अनिवार्य गति से मुसलमानों का प्रतापसूर्य भी कई सौ बरस तक खूबही तपकर अन्त में पश्चिम के महासागर में सदैव के लिये जाकर डूब गया और ब्रिटानियन (अंग्रेज़ ) सौदागरों ने सौदागरी के बहाने से इस देश को हड़प लिया। यद्यपि यह देश फिर भी पराधीनता की बेड़ी से जकड़ाही रह गया; पर इतना अच्छा हुआ कि अंग्रेजों ने मुसलमानों के अत्याचार से इस अधमरे देश का पिण्ड छुड़ाया। यद्यपि अभी तक अंग्रेज़ों ने उस उत्तम नीति का व्यवहार भारतवालियों के साथ प्रारम्भ नहीं किया है, जैसा कि वे अपने गोरे भाइयों के साथ करते हैं, पर तो भी यहां वालों को इस बात पर संतोष है कि उनका गला अत्याचारियों से छूटा। इसीसे कहना पड़ता है कि काल की महिमा का कोई पार नहीं पा सकता, वह चाहे सो करे!!!
इतिहासों से यह बात भलीभांति प्रगट होती है कि मुसलमानों ने जब, जिस देश को अपने आधीन किया, छल, कपट और दुराचार के कारण; और जहां ये गए, वहां लूट, खसोट, फूकने, जलाने ढाहने, उजाड़ने, लौंडी, गुलाम बनाने, और हिन्दूधर्म तथा समाज को सत्यानाश करने ही में अपनी बहादुरी दिखलाई। यद्यपि इनमें भी कई बहुत अच्छे और न्यायप्रिय बादशाह तथा नवाब हए हैं, पर अधिक संख्या अत्याचारियों ही की इतिहासों में भरी पड़ी है।
यह उपन्यास बंगदेश की घटनाओं से संबंध रखता है, इसलिये यहां पर हम बंगदेश में मुसलमानी हुकूमत का कुछ हाल लिखदेना उचित समझते हैं।
बंगदेश की स्वाधीनता का नाश करनेवाला पहिला नव्वाब बख्तियार खिलजी हुआ, जो जात का अफ़गान था और दिल्ली के गुलाम बादशाह कुतबुद्दीन का भेजा हुआ बंगदेश (सन् १२०३ ई०) में आया था। इसके बाद बंगाले के कई हाकिम हुए, जिनमें गयासुद्दीन सभो में नेक था (सन् १२२० ई०)
फिर (सन् १२२७ ई०) सुगन खां नव्वाब हुआ और उसके