"उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः ।”
कुटिल काल की टेढ़ी चाल बराबर ही बदला करती है, यहां तक कि बड़े बड़े त्रिकालज्ञ विद्वानों ने भी काल की इस बिलक्षण चाल का भेद नहीं पाया है। कहने का प्रयोजन यह कि जब तक संसार का अस्तित्व बना रहेगा, काल की अनिवार्य गति भो बराबर इसी प्रकार बदलती हुई चली जायगी; इस गति का रोकना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है।
देखिए, एक दिन वह भी था कि जब हमारा भारतवर्ष ससागरा पृथ्वी का सिरमौर बना हुआ था, यहीं के मण्डलेश्वर नृपति गण सारे भूमण्डल का शासन करते थे, इसी देश में पहिले पहिल सबगुनआगरी लक्ष्मी और सरस्वती ने जन्म लिया था, सारे संसार में सब मांति की विद्या यहीं के विद्वान ब्राह्मणों के द्वारा फैलाई गई थीं और इसी देश के विद्वानों से शिक्षा पाकर सभी असभ्य देश के रहनेवाले भी सभ्यता की चोटी तक पहुंचे थे; इस बात के अनगिनतिन प्रमाण इतिहास पुराणों में भरे पड़े हैं। देखिए, भगवान मनुजी क्या कह रहे हैं,-
"एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वस्वं चरित्र शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।
वाल्हीका यवनाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः॥”
किन्तु, हा! एक दिन यह भी है कि वही स्वाधीन भारत कराल काल की कुटिल गति से अपनी सनातन की स्वाधीनता खोकर मुसल्मानों का गुलाम हुआ और फिर जहां तक होना चाहिए था, इस देश, यहां की विद्या, धर्म, कीर्ति, मर्यादा, जाति और समाज का खूब ही नाश हुआ। यहां तक कि आज दिन रामायण और महाभारत आदि इतिहासों की पुरानी बातें लोगों को बिलकुल झूठ या सपने की सी प्रतीत होने लगती हैं। क्या यह उसी सत्यानाशी काल की टेढ़ी चाल का नमूना नहीं है कि जिसने भारत