रहने तक तो कमलादेवी उतनी नहीं घबड़ाई थीं, पर जब बिमला का परलोकबास हो गया तो कमलादेवी की घबड़ाहट का वारापार न रहा, किन्तु उस समय चंपाने उन्हें बहुत धीरज दिया। वह बाजार से फल खरीद लाती और उसकी माला बनाकर बाजार में बेंचती, उसीसे उसका, उसकी स्वामिनी का और कुसुम का दिन किसी किसी तरह कटता था। जब कुसुम कुछ स्यानी हुई तो वह भी माला गंथने में चम्पा की सहायता करती और कभी कभी उसके साथ बाजार भी चली जाती, और जो कभी चम्पा किसी दिन बाजार न जा सकती तो अकेली कुसुम ही माला लेकर बाजार जाती और उसे बेंच आती थी। जिस दिन पहिले पहिल बीरेन्द्र ने कुसुम को बाजार में माला बेंचती हुई देखा था, उस दिन उन्होंने उसकी सब मालाएं खरीद ली थी और बातों ही बातों उसका सारा हाल भी जान लिया था।
कुसुम के दुःख से भरे समाचार ने परोपकारी महात्मा बीरेन्द्र के हृदय को इतना मथ डाला कि उन्होंने उसी समय कुसुम की भरपूर सहायता करने की प्रतिज्ञा की और उसका सारा भार अपने ऊपर लिया, किन्तु बीरेन्द्र की इस उदारता का असली भेद कमलादेवी ने कुछ भी नहीं जाना था कि,- एक अनजाना मनुष्य, हम लोगों की इतनी सहायता क्यों करने लग गया है?'
पहिले पहिल जिस दिन कुसुम से बीरेन्द्र की देखाभाली हुई थी, उस दिन कुसुम के हाथ में केवल पांच मालाएं थीं; सो बीरेन्द्र ने बड़े आग्रह से पांचो मालाएं लेकर उसके हाथ में पांच रुपरु धर दिए। पांच टके की माला के बदले पाँच रुपए पाकर कुसुम बहुत ही चकपकाई और वे रुपए बीरेन्द्र को लौटा कर बोली,-
"नहीं, नहीं! इन मालाओं का इतना दाम नहीं है। जितना कि आप दे रहे हैं। एक एक माला का दाम ज्यादे से ज्यादे दो दो पैसे है।"
बीरेन्द्र ने कहा,-"कुसुम! तुम्हारा कहना ठीक है। मैंने श्रीठाकुरजी से यह मनौती मानी थी कि,-'यदि मेरा अमुक काम हो जायगा तो कुमारी कन्या से पांच रुपए की माला मोल लेकर चढ़ाऊंगा।' सो, कुसुम! श्रीवृन्दावनबिहारी की कृपा से हमारा