पृष्ठ:हृदयहारिणी.djvu/१८

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लावा मैंने लिया था, वह तो हाथी के उपद्रव से बाटही में गिर गया, सो अब मैं मां को पथ्य काहे का दूंगी! अब तो पास पैसे भी नहीं हैं कि दुबारे आकर पथ्य के लिये कुछ खरीदूं।"

कुसुम की बातों से युवक का हृदय टुकड़े टुकड़े होने लगा और उसने अपने कलेजे को भर जोर दबाकर बड़ी कठिनाई से कहा,-

"कुछ चिन्ता नहीं; कुसुम! गिर गया तो गिर जाने दो। चलो, आगे की दूकान से खाने पीने की सामग्री और पथ्य के लिये कुछ लेलें।"

कुसुम ने लंबी सांस भर कर कहा,-" भई! अभी मैं तुमसे यह बात कह चुकी हूं कि मेरे पास तो अब एक पैसा भी नहीं रहा।"

युवक ने कहा,-" नहीं है तो क्या हुआ, मैं तो हूँ। आओ मैं सब चीज़ लेता चलूं।"

इस बात को सुनकर कुसुम आगा पीछा करने लगी और सकंच कर बोली,-

"नहीं, बीरेन्द्र! ऐसा करने से मां लड़ेंगी; और फिर अभी तक तुम्हारे देने का इतना बोझ हम लोगों के सिर चढ़ रहा है कि उससे छुटकारा पाने की घड़ी न जाने आवेगी कि नहीं, सो नहीं कह सकती; उस पर फिर तुम और भी खर्च करना चाहते हो!"

पाठकों को जानना चाहिए कि युवा का नाम 'बीरेन्द्र' था, सो उसने कुसुम की बातें अनसुनी करके कहा,-

"चलो, चलो, ये बातें रहने दो। जब कि मैं अपने मन से तुम्हें उधार देता हूँ और साथ ही यह भी कहता हूं कि,-'जब तुम्हारे हाथ में पैसा आवे तो मेरा लहना चुका देना;' तब फिर तुम क्यों व्यर्थ इतना संकोच करती हो!"

निदान, बीरेन्द्र ने किसी भांति कुसुम को समझा बुझा कर पास की दुकान से थोड़ी मिठाई, धान का लावा और परवर लिया और दोनों घर की ओर चले।

यहां पर इस बात का तो कहना ही व्यर्थ है कि,-'कुसुम के साथ बीरेन्द्र की पहिले ही से जान पहिचान थी' क्यों कि यदि उन दोनों में पहिले का परिचय न होता तो वे दोनों आपस में इस ढंग की बातें कभी न करते। हां, तो बीरेन्द्र कौन है? यह बात हम