जी खोल कर लड़ी तो सही, पर एकाएक मुसलमानों के छापा मारने से वह उनका कुछ कर घर न सकी और राज्य के बड़े बड़े शरवीर और कर्मचारी मारे गए। यह दशा देख कमलादेवी का शोक सौगुना बढ़ गया और वह सब भांति असहाय हो गई। तब वह धर्म बचाने के लिये अपनी तीन चार बरस की कन्या को साथ ले (सन् १७४५ ई०) भेस बदल कर कृष्णनगर से भागीं। उस समय चम्पा नाम की एक दासी उनके साथ थी। निदान, वहांसे भाग कर कमलादेवी अपनी कन्या और चम्पा को साथ लिये हुईं, अपनी मामी के घर मुर्शिदाबाद में चली आईं।
किसी समय कमला के मामा राजसिंह का जमाना बहुत ही अच्छा था और वे मुर्शिदाबाद के बड़े भारी ज़िमीदारों में गिने जाते थे, पर मुसलमानी अत्याचार ने उन्हे भी मिट्टी में मिला छोड़ा और उनके मरने पर उनकी स्त्री, जिनका नाम बिमला था, बडी कठिनाई से अपना दिन बिताने लगी थीं। सो कमलादेवी अपनी लड़की और चम्पा दासी को साथ लिये हुई अपनी मामी बिमला के यहां चली आई और दोनों जनी किसी भांति अपने दुःख के दिन काटने लगीं।
दुष्ट मुसलमानों ने कृष्णनगर के मन्त्री महीधरशर्मा को बुरी तरह से मार डाला और उनके जवान बेटे रघुनन्दन शर्मा की नाक कान काट ज़बर्दस्ती उन्हें मुसल्मान बना डाला और देखते देखते सारा कृष्णनगर पिशाचों की लीलाभूमि बन गया। उसदिन कृष्णनगर में जैसा भयङ्कर पैशाचिक अत्याचार हुआ था, उसका साक्षी इतिहास है।
अवला का आधार।
" परोपकाराय सतां विभूतयः "
ऊपर यह बात हम कह आए हैं कि बालिका का पता लगा कर युवा जल्दी जल्दी पैर बढ़ाता हुआ उस ओर को चल निकला, जिधर बालिका के जाने का समाचार उसने पाया था। थोड़ी दूर जाने पर उसने देखा