थीं और महाराज धनेश्वरसिंह की पटरानी बनकर उन्होंने इस प्रवाद को एकदम मिटा दिया था कि,-'वाम विधाता संसार में कभी समान जोडी मिलाता ही नहीं।' किन्तु कुटिल काल की टेढ़ी चाल से किसीका चारा नहीं चलता, इसीसे सबका सदा एक सा दिन भी नहीं बीतता, संसार का नियम ही ऐसा है। यदि काल का जीर धनिकों पर न चलता होता तो संसार के सभी कंगाल एकही दिन हाय मार कर मर गए होते और धनवानों के अभिमान का कोई ठिकाना न रहा होता; पर ऐसा नहीं है। क्योंकि काल को एक ही आंख है, जिससे वह संसार के सभी छोटे बड़े को समान भाव से देखता है। इसी कारण कमलादेवी के लिये भी दुखदाई कालरात्रि आ उपस्थित हुई।
मुसलमानों के अत्याचार से राजगृह का राज (सन् १७४० ई०) तहस नहस हो गया और राजा लक्ष्मणसिंह बड़ी वीरता से अनगिनतिन मुसल्मानों के सिर काट, वीरगति को पहुंचे। यदि मुसलमानी सेना छल कपट छोड़ कर धर्मयुद्ध करती तो कभी राजगृह का सत्यानाश न होता और न राजा लक्ष्मणसिह को ही अकाल ही में काल के आधीन होना पड़ता; किन्तु क्या किया जाय समय जो चाहे सो करै।
निदान, केवल कमलादेवी को छोड़ राजा लक्ष्मणसिंह के वंश में और कोई न रहा। इस महाशोक से बिचारी को छटकारा भी नहीं मिला था कि एकाएक उन पर बिना बादल की बिजुली टूट पड़ी, आशालता मुरझा गई, सुखसागर सूख गया, सौभाग्यसदन भस्म हो गया, हृदयदीपक बुझ गया और मानो आज संसार में उनका कोई न रहा; बरन यों कहना चाहिए कि आज कमला का प्राण मानों उड़ गया है, केवल देहपिञ्जरमात्र संसार में खड़ा है। हा! यह लिखते कलम की छाती फटती है कि आज कमलादेवी विधवा हो गई हैं और उनके प्राणपति उन्हें सदा के लिये अकेली छोड़ कर बैकुंठ सिधारे हैं।
अभी पिता के शोक से कमलादेवी ने छुटकारा भी नहीं पाया था कि उन्हें पति के वियोग रूपी आग में जलना पड़ा। यद्यपि उन्होंने पति के साथ चिता पर जल जाने के लिये बड़ा हठ किया,पर उस समय वह गर्भवती थीं, इसलिये लोगों ने उन्हें बलपूर्वक