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बेहयाई का बोरका



कभी अपनी ही रियाया के क़त्लेआम का हुक्म दे बैठता था। वह बादशाह क्या, हिन्दुस्तान का मानो मलकुलमौत था।

संध्या का सुहावना समय था, शाही बाग़ में एक संगमर्मर के चबूतरे पर ज़र्दोज़ी मसनद पर बैठा हुआ अ़लाउद्दीन हुक्क़ा पी रहा था और चालीस पचास मुसाहब उस चबूतरे के इर्दगिर्द दस्तबस्त: सिर झुकाए हुए खड़े थे। इतने ही में उसके वज़ीर-आज़म बहरामख़ां ने वहां आ और शाहानः आदाब बजा लाकर एक ख़लीता उसके सामने रख दिया और हाथ जोड़कर कहा,-

“जहांपनाह! यह ख़लीता हुजू़र की ख़िदमत में सिपहसालार फ़तहख़ां ने रवानः किया है।"

अ़लाउद्दीन,-"बेहतर! इसका मज़सून पढ़कर सुनाओ।"

"जो इर्शाद" कहकर वज़ीर ने उस ख़लीते के अन्दर से एक ख़त निकालकर पढ़ा, जो फ़ारसी भाषा में लिखा हुआ था; किन्तु उसका मतलब हम हिन्दी भाषा में अपने पाठकों को सुनाते हैं,-

"आलीजाह!

हुजू़र का हुक्मनामा पाते ही गुलाम देवगढ़ से घेरा उठाकर इलाके गुजरात से गुजरा