योहीं होते-होते दो दिन बीत गए, आज तीसरा दिन है और इस शहर या शहरवालों के भाग्य के वारे-न्यारे होने का यही आख़िरी दिन है। फ़तहख़ां की फ़ौज में आज सबेरे से ही जंग की तैयारियां होने लगी हैं, जिनका हाल सुनकर राजा, प्रजा और रनिवांस की दशा बहुत ही बुरी दिखलाई देरही है।
दो दिन बीतने पर आज कमलादेवी ने राजा विशालदेव से रोकर कहा,-"नाथ! यदि मेरे ही देडालने से इस नगर के लाखों आदमियों की जान और आपका राज्य बचता है तो मुझे देडालिए और समझ लीजिए कि आपकी प्यारी कमला मर गई।"
विशालदेव रानी के मुंह से ऐसी बात सुन धीरज छोड़कर बालकों की नाईं रोने लगा और बोला,-"प्यारी! हाय! क्षत्रिय होकर प्राण रहते हम अपनी प्रियतमा पत्नी को आततायी यवन के हवाले करेंगे? धिक्कार है, ऐसे जीवन पर! इससे तो अपने हाथों तुम्हें मार शत्रुओं से जूझकर मर जाना कड़ोर गुना अच्छा है।"
कमला,--“आपका कहना तो ठीक है, किन्तु नाथ! नीति कहती है कि-'त्यजेदेकं कुलस्यार्थे०'