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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


राजकीय नियमो से भी चोर को चोर और वेश्या को वेश्या कहना दण्डनीय अपराध है । यदि कोई विशेष प्रयोजन न हो तो किसी के दोष प्रकट करके मनुष्य को स्वयं हल्का होना उचित नहीं। अपने जाति-वालो और कुटुम्ब वालो के दोष बताना तो और भी निन्दनीय समझा जाता है ।

किसी की प्रशंसा बहुत बढ़ाकर करना उचित नहीं, क्योकि उसमे लोगो को मिथ्यापन का सन्देह होने लगता है। जिस समय जिसके जितने गुणो को प्रकट करने की आवश्यकता हो उस समय उसके उतने ही गुण प्रकट किये जावें। यदि कोई किसी का साधारण परिचय ही पूछे तो उस समय उसकी गुणावली पर विस्तृत व्याख्यान देना अनावश्यक और अनुचित है । गुण-गान इस सावधानी से किया जावे कि उस से व्यग्यं की ध्वनि न निकले ओर सुनने-वाले को ऐसा न जान पड़े कि वक्ता अपनी इच्छा के विरुद्ध गुण-गान कर रहा है। यदि हमारे दो भले शब्द कह देने से किसी का महत्व पूर्ण कार्य सिद्ध होता है तो हमे अपनी इच्छा के विरुद्ध भी उन शब्दों के कहने में आनाकानी न करना चाहिये ।

यदि हम से कोई प्रशंसा-पत्र मांगे और हमें उस व्यक्ति के आचरण से पूरा संतोष न हो तो उस समय हमारा यह कर्त्तव्य है कि या तो किमी उचित उपाय से प्रशंसा पत्र देने के अवसर को टाल दे अथवा ऐसा प्रशंसा-पत्र लिख देवें जिस में प्रशसा की मात्रा साधारण हो । किसी भी अवस्था में ऐसा प्रशंसा पत्र न दिया जावे और न ऐसा गुण-कथन किया जावे जिसमे स्पष्ट मिथ्यापन हो । बार-बार लोगो की सिफारिश करने अथवा उसे प्रशंसा पत्र देने से उस गुण-कथन का मूल्य घट जाता है, इसलिए लोगो की बहुत सावधानी से दूसरो को प्रशंसा करनी चाहिये।