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पाँचवाँ अध्याय


ये सदाचारी कंगाल के यहांँ भले ही चले जायें, पर दुरिचारी महाजन के द्वार पर न झांँके।

मुलाकाती के जाने के पूर्व हमें पान, सुपारी, इलायची आदि से उसका आदर करना चाहिये । जिस समय वह जाने लगे उसकी योग्यता के अनुसार खड़े होकर या द्वार तक जाफर अथवा दस कदम बाहर चलकर उसे अभिवादन-सहित विदा देना चाहिये।

( ४ ) परस्पर व्यवहार में

समाज में कुछ एसे व्यवहार होते हैं जो बदले के रूप में केवल उन्हीं व्यक्तियो के साथ किये जाते हैं जिन्होंने जैसा व्यवहार दूसरों के साथ किया है। कभी-कभी एसे व्यवहार इस आशा से भी आरम्भ किये जाते हैं कि आगे इन व्यहारा का बदला मिलेगा और कुछ परिचय बढ़ेगा। दूसरे के यहाँ बेठने को जाना इसी प्रकार का व्यवहार है जिसमे व्यवहार करने वाला मनुष्य इस बात की आशा करता है कि हम जिसके यहाँ जाते हैं यह भी कभी हमारे यहाँ आवे । यदि व्यवहार एक ही ओर से कुछ समय तक होता रहे ओर दूसरी ओर से प्रति-व्यवहार न किया जाय ता ऐसा व्यवहार बहुत दिन तक नहीं चल सकता । इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य किसी की बीमारी की अवस्था में अथवा संकट के समय उमके यहाँ जावे, तो उसका भी कर्तव्य है कि ऐसे अवसर पर यह उसके यहाँ अवश्य जावें।

यदि किसी के यहाँ से हमारे यहाँ रुपये-पैसे के रूप में अथवा वस्त्र आदि के रूप में व्यवहार आवे तो हमें उसका हिसाब रखना चाहिये और उसके यहाँ वेसा ही कोई अवसर आने पर उतना ही व्यवहार करना चाहिये। यदि हम किसी अनिवार्य कारण से उस अवसर पर स्वयं उपस्थित न हो सके तो हमे दूसरे के द्वारा अथवा डाका से व्यवहार भिजवा देना चाहिये।