की उपयोगिता पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। कई लोग
साधारण पढ़े-लिखे लोगों के साथ बात-चीत करने में ‘विचार-स्व
तय', ‘व्यक्तिगत आक्षेप', ‘वैयक्तिक धारणा' आदि शब्दो का उपयोग
करते हैं, पर ये शब्द साधारण पढ़े-लिखे लोगो की समझ में नहीं
आ सकते। इसी प्रकार पंडितों की समाज में मनुष्य के लिए मानस
पिता के लिए बाप, माता के लिए महतारी, और भोजन के लिए
खाना कहना असगत है। हिन्दी भाषी लोग बहुधा ‘ष', ‘श', ‘व'
और ‘क्ष' के अशुद्ध उच्चारण के लिए प्रसिद्ध हैं। इसलिये शिक्षित
लोगो को इस उच्चारण दोष से बचना चाहिये। कई उर्दूदा सज्जन
अपनी बात-चीत में ‘सिर' को 'सर', ‘आगन' को ‘सहन', ‘वजाज को ‘वज्जाज' और ‘कलम' को ‘कलम, कहकर अपनी भाषा-विज्ञत
का परिचय देते हैं जो शिक्षित हिन्दी भाषी समाज में उपहास या योग्यहीन
समझा जाता है। हमारे कई एक हिन्दी भाषी भाई उर्दू उच्चारण
की शुद्धता के मोह में पडकर उस भाषा के ‘ज' वाले शब्दों में ‘ज'
का अशुद्ध उच्चारण करते हैं और कदाचित यह समझते हैं कि
इससे उनकी ‘उर्दू-दानी' प्रकट होती है। हमने उर्दू न जानने-वाला
एक वकील महाशय को ‘जायदद', ‘मजबूर', ‘हर्ज' और ‘ताज़'
कहते सुना है, पर शिष्टाचार के अनुरोध से और उनके अप्रसन्न होने
के भय से हमने उनको उनकी भूल नहीं बताई । हिन्दी के ‘फ'
अक्षर को भी कई लोग भूल से ‘फ' कहते हैं, जैसे फल, फूल और
फन्दा। शिष्ट भाषण में इन सब दोषो से बचने की बड़ी आवश्यक
ता है। बिना उर्दू पढ़े, उस भाषा के ज, फ, स, और ग का उच्चारण
करने का किसी को साहस न करना चाहिये, क्योकि इससे शिक्षित समाज में और विशेष कर शिक्षित मुसलमानो में हँसी होती है। ये लोग अपने शुद्ध उच्चारण पर बड़ा गर्व करते हैं और दूसरी जाति के अशुद्ध उच्चारण की बहुधा हँसी उड़ाया करते हैं। इसके लिए सब
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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार