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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


लेना चाहिये। कुछ हल्के हदय वाले लोग किसी के मुंँह से अशुद्ध उच्चारण सुनकर हॅस देते हैं, पर यह प्रत्यक्ष असभ्यता है।

किसी की असम्भव बातें सुनकर भी हांँ में हांँ मिलाना चाप -लूसी है और न्यायसगत बातें सुनकर भी उनका खंडन करना दुरा- ग्रह है। लोगो को इन दोषों से बचना चाहिये । यद्यपि वार्तालाप में दूसरे के मत का सम्मान करने में अथवा उसको प्रशंसा के दो- चार शब्द कहने में चापलूसी का कुछ आभास रहता है, तथापि इतनी चापलूसी के बिना सभाषण नीरस और अप्रिय हो जाता है। इसी प्रकार अपने मत के समर्थन में और दूसरे के मत का खंडन करने में कुछ न कुछ दुराग्रह दिखाई देता है, तो भी इतना दुराग्रह सभ्य ओर शिक्षित समाज में क्षतव्य है। किसी अनुपस्थित सज्जन की अका- रण निन्दा करना शिष्टता के विरुद्ध है। यदि बात-चीत में ऐसे महाशय का उल्लेख होवे तो उसके नाम के पूर्व या पीछे किसी आदर सूचक शब्द का प्रयोग करना चाहिये । विद्वानो की समाज में मत-भेद होने के अनेक कारण उपस्थित होते हैं, इसलिये जब किसी के मत का खंडन करने का अवसर आवे तब उस मत का खंडन नम्रता-पूर्वक क्षमा प्रार्थना करके और ऐसी चतुराई से करना चाहिये जिसमें विरुद्ध मत-वाले को बुरा न लगे । बात-चीत में क्रोध के आवेश को रोकना चाहिये और यदि यह न हो सके तो उस समय मौन ही धारण करना उचित है। व्यंग्य वचनों का उत्तर व्यंग्य ही से देना नीति की दृष्टि से अनुचित नहीं है, तथापि शिष्टा- चार उन्हें कम से कम एक बार सहन करने का परामर्श देता है।

जिससे बात-चीत की जाती है उसकी योग्यता का विचार करके वर्णनात्मक अथवा विचारात्मक विषय पर सम्भाषण किया जावे । नव-युवको से वेदान्त की चर्चा करना ओर वयोवृद्ध लोगो को श्रृंगार रस की विशेषताएँ बताना शिष्टाचार के विरुद्ध है।