पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/५७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७
चौथा अध्याय


को यह मालूम हुआ कि सत्कृत सज्जन केवल दव्करी हैं तब उन्ह इन सज्जन को अपनी अदालत से दूसरी जगह बदलवा देना पड़ा। इसके विरुद्ध यह भी न होना चाहिये कि कोई उच्च श्रेणी का मनुष्य साधारण लोगो के से वस्त्र धारण करे।

बाजारी लोगो और गुंडों की एक प्रकार की विशेष पोशाक होती है जिससे वे तुरन्त पहचान लिये जाते हैं। इस प्रकार के परिधान से प्रत्येक शिक्षित और सभ्य व्यक्ति को बचना चाहिए। यह वेश-भूषा निन्दनीय समझी जाती है और इसे धारण करने- वाले व्यक्ति की ओर से लोगो की श्रद्धा हट जाती है।

कइ सरकारी विभागों में कर्मचारियों की एक विशेष रूप की पोशाक रहती है जिसे 'वर्दी' या 'दरेस' कहते हैं। इस पोशाक के अधिकारियो को निजी कामो ओर अवसरों पर अपनी जाति सम्बन्धी पोशाक पहिनना चाहिए । इस वेशभुषा का अनुकरण केवल शिष्टाचार ही को दृष्टि से नहीं, कितु कानूनी दृष्टि से भी औरो के लिए व्यर्थ।

वस्रो की उपयुक्तता जितनी आवश्यक है उतनी ही उनकी स्वच्छता प्रार्थनीय है । बहुमूल्य वस्त्र भी स्वच्छता के अभाव में शोभा की सामग्री नहीं हो सकते । केवल स्वास्थ्य ही को दृष्टि से नहीं, कितु शिष्टाचार की दृष्टि से भी स्वच्छ वस्त्र धारण करना कर्तव्य है। मैले वस्त्र पहिनना धार्मिक दृष्टि से भी निदनीय है, क्योकि वे अशुभ समझे जाते हैं।

जिन्हें सामर्थ्य हो उन्हें कम से कम चार जोड़ी कपडे अवश्य रखना चाहिए जिसमें वे उन्हें प्रति सप्ताह बदल सकें । एक ही जोड़ी कपड़े को बार बार धुलाकर पहनना दरिद्रता का सूचक है। जो लोग दिन में चार चार कपडे बदलते हैं ये तो शिष्टाचार को पराकाष्टा तक पहुंचा देते हैं, पर जो सजन एक ही कपड़े को