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चौथा अध्याय


के,तो उसे प्रमुख स्थान दिया जावे । उसके पास ही वे लोग बैठाये जायँ जो उसके निकट सम्बन्धी अथवा गाढ़े मित्र हो । यदि जाति-सम्बन्धी भोज हो तो जाति के मुखियों और मान्य लोगों को गाँव में आरभीय स्थान दिया जाना चाहिए । जहाँ इन सब बातो का विचार नहीं है और जाति पाति का बखेड़ा नही है वहाँ प्रमुख ठोर पर ज्ञान-बृद्ध, वयो-वृद्ध तथा प्रतिष्ठित लोगो को बिठाना चाहिए । बैठक के क्रम का बहुत ही सूक्ष्म निर्णय नहीं हो सकता, तथापि जहाँ तक हो इस बात का विचार रखना चाहिए कि किसी का किसी प्रकार अपमान न हो। यदि किसी को किसी के पास बैठकर भोजन करने में आपत्ति हो (पर गृह-स्वामी के मान के विचार से ऐसा होना न चाहिए), तो प्रबन्धक का कर्त्तव्य है कि वह उसे किसी और उचित स्थान पर बैठाले अथवा उसके लिए पास ही किसी अलग और उपयुक्त स्थान का प्रबन्ध कर दे।

पाहुनो के लिए जो स्थान चुना जावे वह जहाँ तक हो स्वच्छ तथा दुर्गंध से मुक्त हो। हम लोगो के आँगनो के आसपास ही बहुधा विस्तार की जगह रहती हैं जिनके पास दुर्गध निकलती है। भोजन का स्थान ऐसी जगहा से इतनी दूर हो कि वहाँ दुर्गंध न पहुँचे । जिन घरों में अन्य उपयुक्त स्थान हा उनमे दुर्गंध मय स्थानों के आसपास की जगह भी काम म न लाई जावे । यदि निमंत्रित व्यक्तियो की संख्या स्थान के मान से अधिक है (बहुधा लोग अपनी प्रतिष्ठा के लिए अपवा विवश होकर अनेक लोगों को निमंत्रित करते हैं ), तो उनकी दो टोलियाँ करके उन्हें अलग अलग दो पगतो में खिलाना उन्नित होगा। एक पगत के उठ जाने पर स्थान फिर से साफ किया जाय । भोजन-स्थान में जहाँ तहाँ धूपबत्तियाँ जलाई जायें और वहाँ से अनावश्यक कपड़े-लत्ते, वासन-वर्तन आदि सब हटा लिये जायें।