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तीसरा अध्याय

आधुनिक हिन्दुस्थानी शिष्टाचार के भेद

शिष्टाचार का विषय इतना व्यापक है—अर्थात् इस गुण का प्रयोग करने के स्थल और अवसर इतने बहुत हैं—कि सब अवस्थाओं के लिए पूरे पूरे नियम बनाना बहुत कठिन कार्य है । यद्यपि इस विषय के प्रयोग का सम्बन्ध मनोविज्ञान, नीति- शास्त्र और समाज शास्त्र से है, तोभी यह स्वय कोई शास्त्र नहीं है, क्योकि इसमें हम कोई सिद्धात अथवा अटल नियम स्थापित नही कर सकते । अपने से बड़े को प्रणाम करने की प्रवृत्ति किसी स्वाभाविक प्रेरणा से अवश्य उत्पन्न होती है, पर वह सब अवस्थायो में एकसी नहीं रहती और किसी विशेष अवस्था में मिट भी जाती है । शिष्टाचार केवल एक प्रकार की ललित कला है जिसका उद्देश्य दूसरे को सुभीता और संतोष देना है और जो बहुधा अभ्यास से आती है। ऐसी अवस्था में इस विषय का विवेचन सिद्धान्तो के आधार पर तथा पूर्णता से करना कठिन है। तो भी इस विषय के मुख्य मुख्य स्वरुपो का वर्णन अधिकाश में क्रम-पूर्वक और स्पष्टता से किया जा सकता है।

शिष्टाचार को हम तीन विभागो में बाँट सकते हैं—(१) सामा- जिक (२) व्यक्तिगत (३) विशेष ।

(१) सामाजिक शिष्टाचार

जो शिष्टाचार किसी समाज विशेष म प्रचलित है और जिसे उस समाज के व्यक्ति के लिए समान के प्रति करना उचित और आवश्यक है उसे सामाजिक शिष्टाचार कहते हैं। किसी बाहरी