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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


सकता है। वे वचन ये हैं—(वर अोर कन्या को उपदेश) “तुम दोनो यहाँ मिले हुए रहो, कभी अलग मत होनी । नाना प्रकार के भोजनो का उपभोग करो, अपने ही घर में रहो, और अपने पुत्र पौत्रों के साथ रहकर सुख भोगो।"

(वर कन्या कहते हैं ) “प्रजापति हमे सन्तान देवें और अर्यमन् हमे वृद्धावस्था पर्यन्त मिला हुआ रखें"।

(कन्या का उपदेश) “हे कान्ये, मंगल शकुनो के साथ तुम अपने पति के गृह में प्रवेश करो। हमारे दाम-दासियो ओर पशुओ को लाभ पहुँचाओ" । “तुम्हारे नेत्र क्रोध से मुक्त रहें । तुम अपने पति का सुख साधन करो और हमारे पशुओं को लाभ पहुँचाओ। तुम्हारा चित्त प्रसन्न और तुम्हारी छवि सुन्दर रहे । तुम वीर पुत्रों की माता होओ ओर देवों की भक्ति करो।”*

इन मन्त्रों से ज्ञात होता है कि आर्य लोग दास-दासियो के प्रति भी सद्-व्यवहार करते थे। क्रोध के परिहार और वित्त की प्रसन्नता पर उनकी विशेष दृष्टि रहती थी जो शिष्टाचार के पालन के लिए बहुत आवश्यक हैं । वधू के सुख-चैन का विचार करना भी उनके सदाचार का परिचय देता है।

ब्राह्मणो के लिए नियत किये गये चार आक्षमों की संस्था से भी हम सहज ही अनुमान कर सकते हैं कि आर्यों को सदाचार और शिष्टाचार का कितना अधिक ध्यान था। बड़ो का आदर करना, सत्य बालना और प्रतिज्ञा पालन हमारे पूर्वजों के मुख्य कर्तव्य थे। ब्राह्मणों को अपने जीवन में शासन के कड़े नियम पालने पडते थे और किसी भी अवस्था में उन्हें भोग-विलास में रहने की आज्ञा नहीं थी।

प्राचीन काल में अतिथि-सत्कार की जो उच्च प्रथा थी उसमें शिष्टाचार का अधिकाश समावेश होता था। सामाजिक कार्यों के


* ऋग्०—१०, ८५, ४२—४७ ।